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भारतीय साहित्य में दान की महिमा
[ 183 महिमा का वर्णन करते हुए आचार्य ने कहा है - "जिस घर में से योगी को भोजन न दिया गया हो, उस गृहस्थ के भोजन से क्या प्रयोजन ? कुबेर की निधि भी उसे मिल जाये, तो क्या ? योगी की शोभा ध्यान से होती है, तपस्वी की शोभा संयम से होती है, राजा की शोभा सत्यवचन से और गृहस्थ की शोभा दान से होती है।" प्राचार्य ने यह भी कहा है - जो भोजन करने से पूर्व साधु के आगमन की प्रतीक्षा करता है, साधु का लाभ न मिलने पर भी वह दान का भागी है।
विधि सहित दान का महत्त्व बताते हुए प्राचार्य ने कहा"विधिपूर्वक दिया गया थोड़ा दान भी महाफल प्रदान करता है । जिस प्रकार धरती में बोया गया छोटा-सा वट-बीज भी समय पर एक विशाल वृक्ष के रूप में चारों ओर फैल जाता है, जिसकी छाया में हजारों प्राणी सुख भोग करते हैं, उसी प्रकार विधि सहित छोटा दान भी महाफल देता है।" दान के फल के सम्बन्ध में, प्राचार्य ने बहुत सुन्दर कहा है-"जैसे मेघ से गिरने वाला जल एक रूप होकर भी नीचे आधार को पाकर अनेक रूप में परिणत हो जाता है, वैसे ही एक ही दाता से मिलने वाला दान विभिन्न उत्तम, मध्यम और जघन्य पात्रों को पाकर विभिन्न फल वाला हो जाता है।" कितनी सुन्दर उपमा दी गई है। अपात्र को दिए गए दान के सम्बन्ध में प्राचार्य ने कहा है-"जैसे कच्चे घड़े में डाला गया जल अधिक देर तक नहीं टिक पाता और घड़ा भी फट जाता है, वैसे ही विगुण अर्थात् अपात्र को दिया गया दान भी निष्फल हो जाता है, और लेने वाला नष्ट हो जाता है।" इस प्रकार आचार्य अमितगति ने अपने श्रावकाचार ग्रन्थ में और उसके दशम परिच्छेद में दान, दान का फल आदि विषय पर बहुत ही विस्तार के साथ विचार किया है ।
एकादश परिच्छेद में प्राचार्य ने विस्तार के साथ अभयदान, अन्नदान, औषधदान और ज्ञानदान-इन चार प्रकार के दानों का वर्णन किया है । वस्तुतः देने योग्य जो वस्तु है, वे चार ही होती हैं, अभय, अन्न, औषध और ज्ञान अर्थात् विवेक । अभय को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है । अभय से बढ़कर अन्य कोई वस्तु इस जगत् में हो नहीं सकती। भीत को अभय देना ही परमदान है । अन्न अर्थात् प्राहार
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