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सकारात्मक हिंसा
समय दान लेने वाला पात्र अथवा ग्रहीता कैसा होना चाहिए ? जो वस्तु दी जा रही है, वह कैसी होनी चाहिए । दान देने की विधि क्या है ? इस प्रकार दान के सम्बन्ध में बहुमुखी विचार इन ग्रन्थों में किया गया है ।
जैन- परम्परा के आचार्यों में, जिन्होंने आचार ग्रन्थ लिखे हैं, उनमें आचार्य अमितगति एक प्रसिद्ध प्राचार्य हैं । उनका ग्रन्थ है'अमितगति श्रावकाचार ।' इसमें बड़े ही विस्तार के साथ दान की मीमांसा की गई है । यह ग्रन्थ पञ्चदश परिच्छेदों में विभक्त है । उसके नवम, दशम और एकादश परिच्छेदों में दान से सम्बद्ध समस्त सिद्धान्तों का विस्तार से वर्णन किया गया है । अन्य विषयों की अपेक्षा, दान का विचार बहुत ही लम्बा है । दान के सम्बन्ध में सूक्ष्म से भी सूक्ष्म विचार प्रस्तुत किए गए हैं। दान का इतना विस्तार, अन्य किसी ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होता । ग्रन्थ के अध्ययन से प्रतीत होता है कि, सम्भवतः यह ग्रन्थ प्राचार्य ने दान की महिमा के लिए ही लिखा हो ।
नवम परिच्छेद के प्रारम्भ में ही प्राचार्य ने कहा है- दान, पूजा, शील और उपवास ये चारों ही भवरूप वन को भस्म करने के लिए, नाग के समान हैं । पूजा का अर्थ है - जिनदेव की भक्ति । भाव के स्थान पर पूजा का प्रयोग प्राचार्य ने किया है । दान क्रिया के पाँच अंग माने गए हैं -- दाता, देयवस्तु, पात्र, विधि और मति । यहाँ पर मति का अर्थ है विचार | बिना विचार के, बिना भाव के दान कैसे दिया जा सकता है ? प्राचार्य अमितगति ने दाता के सात भेदों का उल्लेख किया है - भक्तिमान् हो, प्रसन्नचित्त हो, श्रद्धावान् हो, विज्ञान सहित हो, लोलुपता रहित हो, शक्तिमान् हो और क्षमावान् हो । 'विज्ञान वाला हो' से अभिप्राय यह है कि दाता, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का ज्ञाता हो । अन्यथा, दान की क्रिया निष्फल हो सकती है, अथवा दान का विपरीत परिणाम भी हो सकता है । दाता के कुछ विशेष गुणों का भी आचार्य ने अपने ग्रन्थ में उल्लेख किया हैविनीत हो, भोगों में निःस्पृह हो, समदर्शी हो, प्रियवादी हो, मत्सररहित हो, संघवत्सल हो भौर वह सेवा परायण भी हो । दान की
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