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भारतीय साहित्य में दान की महिमा
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पाषाण हृदय को क्या मालूम कि दान में कितनी मिठास है । जो बिना माँगे ही देता हो, वही श्रेष्ठ दाता है । एक कवि ने बहुत ही सुन्दर कहा है - ' दान से सभी प्राणी वश में हो जाते हैं, दान से शत्रुता का नाश हो जाता है । दान से पराया भी अपना हो जाता है । अधिक क्या कहें, दान सभी विपत्तियों का नाश कर देता है ।' कवि के इस कथन से दान की गरिमा और दान की महिमा स्पष्ट हो जाती है । इस प्रकार समग्र साहित्य दान की महिमा से भरा पड़ा है । संसार में न कभी दाताओं की कमी रही है, और न दान लेने वाले लोगों की ही कमी रही है । दान की परम्परा संसार में सदा चलती ही रहेगी ।
प्राचार - शास्त्र में दान को मीमांसा
जैन - परम्परा के प्राचार - शास्त्र के ग्रन्थों में, फिर भले ही वे ग्रंथ संस्कृत भाषा में हों, अथवा प्राकृत अपभ्रंश भाषा में भी लिखे गए हों, सब ग्रन्थों में प्रचार के सिद्धान्तों का प्रतिपादन कहीं पर संक्षेप में और कहीं पर विस्तार में किया गया है । साधु जीवन के प्रचार का भी वर्णन किया गया है । परन्तु इस प्रकार के ग्रन्थों की भी भूयसी संख्या है, जिनमें केवल श्रावक के प्रचार का ही वर्णन किया गया है । उन ग्रन्थों में सागारधर्मामृत, वसुनन्दी श्रावकाचार, अमितगति श्रावकाचार, उपासकाऽध्ययन, ज्ञानार्णव, योग- शास्त्र तथा उपासकदशांग सूत्र मुख्य कहे जा सकते हैं । इनमें प्राचार के सूक्ष्म प्रोर स्थूल सभी प्रकार के भेद-प्रभेदों का वर्णन किया गया है। त्यागी जीवन से सम्बद्ध सभी बातों का समावेश इन ग्रन्थों में कर दिया गया है ।
श्रावक के इस आचार में दान का भी समावेश हो जाता है । प्रत्येक ग्रन्थ में दान की गरिमा और दान की महिमा का वर्णन किया गया है । उसकी उपयोगिता का प्रतिपादन किया गया है । बताया गया है, कि दान देना क्यों आवश्यक है ? देना, जीवन के विकास का एक अनिवार्य सिद्धान्त है । दान देने से किस गुण की अभिवृद्धि होती है ? दान किस प्रकार का होना चाहिए ? दान का स्वरूप क्या है ? दान के प्रकार कितने हैं ? दाता के भाव कैसे रहने चाहिए ? दान देते
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