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भारतीय साहित्य में दान की महिमा
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चुका है । निराश लौटने को तैयार, पर रघु लौटने नहीं देता । तीन दिनों तक रुक जाने की प्रार्थना करता है । राजा रघु उसकी इच्छा पूरी करके उसे गुरु के आश्रम में भेजता है ।' रघुवंश महाकाव्य का यह प्रसंग अत्यन्त सुन्दर हृदयस्पर्शी और मार्मिक बन पड़ा है । दान की गरिमा का और दान की महिमा का इससे सुन्दर चित्रण अन्यत्र दुर्लभ ही है ।
महाकवि कालिदास भारतीय संस्कृति के मधुर उद्गाता कवि हैं। अपने तीन नाटकों - शाकुन्तल, मालविकाग्निमित्र और विक्रमोर्वशीय में भी अनेक स्थलों पर दान के सुन्दर प्रसंगों की चर्चा की है, कहीं संकेत देकर ही आगे बढ़ गये हैं । इस प्रकार कालिदास के महाकाव्य में और नाटकों में दान के सम्बन्ध में काफी कहा गया है । यहां पर अधिक विस्तार में न जाकर संक्षेप में ही उल्लेख किया गया है ।
संस्कृत महाकाव्यों में बृहत्त्रयी में तीन का समावेश होता हैकिरातार्जुनीय, शिशुपालवध और नैषधचरित । महाकवि भारवि ने अपने काव्य 'किरातार्जुनीय' में किरातरूपधारी शिव और अर्जुन के युद्ध का वर्णन किया है। शिव के वरदान का और उसकी दानशीलता का काव्यमय भव्य वर्णन किया है । महाकवि माघ ने 'शिशुपाल वध' में अनेक स्थलों पर दान का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है । माघ स्वयं भी उदार एवं दानी माने जाते रहे हैं । कोई भी याचक द्वार से खाली हाथ नहीं लौट पाता था । कवि का यह दान गुण उनके समस्त काव्य में परिव्याप्त है । श्री हर्ष ने अपने प्रसिद्ध काव्य नैषध में राजा नल और दमयन्ती का वर्णन किया है, जिसमें राजा नल की उदारता और दान-शीलता का भव्य वर्णन किया गया है ।
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संस्कृत के पुराण साहित्य में दान
संस्कृत के पुराण साहित्य में, दान का विविध वर्णन विस्तार से किया गया है । व्यास रचित अष्टादशपुराणों में से एक भी पुराण इस प्रकार का नहीं है, जिसमें दान का वर्णन नहीं किया गया हो । दान के विषय में उपदेश और कथाएँ भरी पड़ी हैं । रूपक तथा कथानों के माध्यम से दान के सिद्धान्तों का सुन्दर वर्णन किया गया है। जैन
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