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भारतीय साहित्य में दान की महिमा
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है । एक प्रसंग पर राम ने कहा है कि दान देना हो, तो मधुर वचन के साथ दो।
महाभारत में विस्तार के साथ दान का वर्णन अनेक प्रसंगों पर किया गया है । 'महाभारत' में कर्ण, 'दानवीर' के रूप में प्रसिद्ध है। अपने द्वार पर आने वाले किसी भी व्यक्ति को वह निराश नहीं लौटने देता । अपनी कितनी भी हानि हो, पर याचक को वह निराश नहीं लौटने देता। धर्मराज युधिष्ठिर का भी जीवन अत्यन्त उदार वर्णित किया गया है। महाभारत के एक प्रसंग पर कहा गया है"तप, दान, श्रम, दम, लज्जा, सरलता, सर्वभतों पर दया सन्तों ने स्वर्ग के ये सात द्वार कहे हैं।" इस कथन में भी दान की महिमा गाई गई है । एक अन्य प्रसंग पर कहा गया है-"धन का फल दान और भोग है।" धन प्राप्त करके भी जिसने अपने जीवन में न तो दान ही दिया और न उसका उपभोग ही किया है, उसका धन प्राप्त करना ही निष्फल कहा गया है । महाभारत में युधिष्ठिर और नागराज के संवाद में कहा गया है- “सत्य, दम, तप, दान अहिंसा, धर्म-परायणता आदि सद्गुण ही मनुष्य की सिद्धि के हेतु हैं, उसकी जाति और कुल नहीं।" इस कथन से फलित होता है, कि दान आदि मनुष्य की महानता के मुख्य कारण रहे हैं । किसी जाति में जन्म लेना और किसी कुल में उत्पन्न होना, उसकी महानता के कारण नहीं हैं। इस प्रकार महाभारत में स्थान-स्थान पर दान की गरिमा और दान को महिमा का प्रतिपादन किया गया है। दान भव्यता का द्वार है, दान स्वर्ग का द्वार है, दान मोक्ष का द्वार है । दान से महान् अन्य कौन-सा धर्म होगा ? इन महाकाव्यों में दान का वर्णन व्याख्या रूप में ही नहीं, आख्यान रूप में भी किया गया है। कथाओं के आधार पर दान का गौरव बताया गया है। संस्कृत महाकाव्यों में दान पर विचार
संस्कृत साहित्य में महाकाव्यों को दो विभागों में विभक्त किया गया है लघुत्रयी और बृहत्त्रयो । लघुत्रयी में महाकवि कालिदास कृत तीन काव्यों की गणना की गई है - 'रघुवंश', 'कुमार सम्भव' और 'मेघदूत' । मेघदूत एक खण्ड काव्य है, शृंगार प्रधान काव्य है।
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