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सकारात्मक हिंसा
जिसके देने से दाता के मन में अहंभाव न हो और लेने वाले के मन में दैन्यभाव न हो । इस प्रकार का दान विशुद्ध दान है, यह दान ही वस्तुतः मोक्ष का कारण है । न देने वाले को किसी प्रकार का भार और न लेने वाले को किसी प्रकार की ग्लानि । यह एक प्रकार का धर्मदान कहा जा सकता है । शास्त्रों में जो दान की महिमा का कथन किया गया है, वह इसी प्रकार के दान का है । यह भव-बन्धन काटने वाला है । यह भव- परम्परा का अन्त करने वाला दान है ।
रामायण- महाभारत में दान की महिमा
संस्कृत साहित्य के इतिहास में, जिसे इतिहासविद् विद्वानों ने महाकाव्य काल कहा है, उसमें भी दान के सम्बन्ध में उदात्त विचारों की झलक मिलती है । महाकाव्य काल के काव्यों में सबसे महान् एवं विशाल काव्य दो हैं- रामायण और महाभारत | अन्य महाकाव्यों के प्रेरणा-स्रोत ये ही महाकाव्य हैं । प्राचार्य आनन्दवर्धन ने अपने प्रसिद्ध काव्यशास्त्र ग्रन्थ 'ध्वन्यालोक' में कहा है-" 'रामायण' महाकाव्य है, करुण रस उसका मुख्य रस है, अन्य रस उसके अंगभूत हैं । 'महाभारत' भी एक महाकाव्य है, शान्त रस उसका प्रधान रस है । शान्त रस अंगी है, और अन्य रस उसके अंग हैं ।" इन दोनों महाकाव्यों में यथाप्रसंग अनेक स्थानों पर दान के सम्बन्ध में वर्णन उपलब्ध होते हैं । कुछ प्रसंग तो अत्यन्त हृदयस्पर्शी कहे जा सकते हैं । 'रामायण' में एक प्रसंग है - राजा दशरथ अपनी रानी कैकेयी को राम के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में समझा रहे हैं। राम के गुणों का वर्णन करते हुए दशरथ कह रहे हैं - " सत्य, दान, तप, त्याग, मित्रता, पवित्रता, सरलता, नम्रता, विद्या और गुरुजनों की सेवा – ये सब गुण राम में निश्चित रूप से विद्यमान हैं ।" यही राम का व्यक्तित्व है । इन गुणों में दान की भी परिगणना की गई है । यह कथन 'अयोध्या काण्ड' में किया गया है । दान से सर्वजनप्रियता उपलब्ध होती है । राम अपने मित्रों के प्रति ही उदार नहीं थे, अपने विरुद्ध आचरण करने वालों के प्रति भी उदार थे । उदार व्यक्ति में ही दाता होने की क्षमता होती है । राम के दान गुण का रामायण में अनेक स्थलों पर वर्णन प्राप्त होता
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