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भारतीय साहित्य में दान की महिमा
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होता है । जो दान क्लेशमूलक हो, फल की आशा रखकर दिया गया हो, फल को दृष्टि में रखकर दिया गया हो, वह दान मध्यम है, उसे राजस दान कहा गया है । जो दान, बिना सत्कार के दिया गया हो, अपमान के साथ दिया गया हो, देश, काल और पात्र का विचार किए बिना दिया गया हो, जो दान किसी कुपात्र को दिया गया हो, वह अधम दान है । वह दान तामसदान कहा गया है । इस प्रकार गीता के तीन श्लोकों में दान की जो मीमांसा की गई है, वह दान की दार्शनिक व्याख्या है । इन श्लोकों में दान की केवल गरिमा तथा महिमा का वर्णन नहीं किया गया है, बल्कि दान की व्याख्या, दान की परिभाषा और दान की मीमांसा की गई है । कहा गया है कि अपनी वस्तु भर किसी को दे डालना दान नहीं कहा जा सकता । उसमें दाता के भाव का भी मूल्य है । देश और काल की परिस्थिति पर भी विचार किया जाना चाहिए । दान किसको दिया जा रहा है, उस पात्र की, उस ग्रहीता की योग्यता पर भी विचार करना चाहिए। किसी को कुछ देने भर से ही दान नहीं हो जाता । गीताकार ने दान की मनोवैज्ञानिक व्याख्या की है । अत: यह व्याख्या अत्यन्त ही सुन्दर रही है । मनुष्य के चित्त में उठने वाले सत्त्वभाव, रजोभाव और तमोभाव के आधार पर दान के परिणाम भी तीन प्रकार के बताए गये हैं । सत्त्वभाव से दिया गया दान दाता और पात्र दोनों के लिए हितकर है। रजोभाव से दिया गया दान, चित्त में चंचलता ही उत्पन्न करता है । तमोभाव से दिया गया दान, चित्त में मूढ़ता ही उत्पन्न करता है ।
भगवान् महावीर ने बहुत सुन्दर शब्दों का प्रयोग किया है - मुधादायी और मुधाजीवी । दान वही श्रेष्ठ है, जिससे दाता का भी कल्याण हो और ग्रहीता का भी कल्याण हो । दाता स्वार्थ रहित होकर दे और पात्र भी स्वार्थ-शून्य होकर ग्रहण करे 1 भारतीय साहित्य में इन दो शब्दों से सुन्दर शब्द, दान के सम्बन्ध में अन्यत्र उपलब्ध नहीं होते । दाता और ग्रहीता तथा दाता और पात्र - शब्दों में वह गरिमा नहीं है, जो मुधादायी और मुधाजीवी में है। 'मुधा' शब्द का अभिधेय अर्थ अर्थात् वाक्यार्थ है - व्यर्थ । परन्तु लक्षणा के द्वारा इसका लक्ष्यार्थं होगा -- स्वार्थ रहित । व्यञ्जना के द्वारा व्यंग्यार्थ होगा - वह दान,
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