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सकारात्मक अहिंसा
ब्राह्मण और प्रारण्यक साहित्य में दान-विचार
वेद-परम्परा के साहित्य में भी दान की मीमांसा पर्याप्त हुई है। मूल वेदों में भी यत्र-तत्र दान की महिमा है । उपनिषदों में ज्ञान-साधना की प्रधानता होने से प्राचारों को गौण स्थान मिला है। परन्तु आचारमूलक ब्राह्मण-साहित्य में, आरण्यक-साहित्य में और स्मृति-साहित्य में दान के सम्बन्ध में बहत विस्तार से वर्णन किया गया है। प्रारण्यक में कहा गया है कि "सभी प्राणी दान की प्रशंसा करते हैं, दान से बढ़कर अन्य कुछ दुर्लभ नहीं है।" इस वाक्य में दान को दुर्लभ कहा गया है, जिसका अभिप्राय है कि दान करना आसान काम नहीं है। हर कोई दान नहीं कर सकता है । सम्पत्ति बहुतों के पास हो सकती है, पर उसका मोह छोड़ना सरल नहीं है। वस्तु पर से जब तक ममता न छूटे, तब तक दान नहीं किया जा सकता। ममता को जीतना ही दान है। एक दूसरे स्थान पर भी 'पारण्यक' में कहा गया है-"दान से शत्रु भी मित्र हो जाते हैं, दान में सब कुछ प्रतिष्ठित है।" इस वस्तु में दान को जीवन का आधार माना गया है और दान की व्यापक व्याख्या की गई है। मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति में दान का बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है । पाराशर स्मृति में दान के सम्बन्ध में कहा है-."ग्रहीता के पास स्वयं जाकर दान देना, उत्तम दान है। उसे अपने पास बुलाकर देना, मध्यम दान है। उसके बारबार माँगने पर देना, अधम दान है । उससे खूब सेवा कराकर देना, निष्फल दान है।" इसमें दान के चार प्रकार कहे गये हैं। चतुर्थ प्रकार के दान को ही हीन कोटि का कहा गया है। देना भी, पर परेशान करके देना, सेवा कराकर देना, उसे लज्जित करके देना उत्कृष्ट दान नहीं है। दान की घोषणा करना पर देना कुछ भी नहीं भी उचित नहीं है।
गीता के १७वें अध्याय के श्लोक २०, २१ एवं २२ में तीन प्रकार के दानों का कथन मिलता है-“सात्त्विक दान, राजस दान और तामस दान ।" जो दान कर्तव्य समझकर दिया जाता है तथा जो देश, काल
और पात्र का विचार करके दिया जाता है, जो दान अनुपकारी को दिया जाता है, उसे गीता में श्रेष्ठ दान, उत्तम दान एवं सात्त्विक दान कहा गया है। यह दान किसी भी प्रकार के फल की आकांक्षा से रहित
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