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भारतीय साहित्य में दान की महिमा
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वेणुवन भी दान में ही मिला है । वैशाली में आम्रपाली ने अपना उपवन बुद्ध को दान में दे दिया था । सम्राट् अशोक ने भी हजारों विहार बौद्ध भिक्षुत्रों के आवास के लिए दान में दे डाले थे । बोद्ध परम्परा का इतिहास दान की महिमा से और दान की गरिमा से भरा पड़ा है। बौद्ध धर्म में दान को एक महान् सत्कर्म माना गया है । यह एक महान् धर्म है । यही कारण है कि इस धर्म में दान को बहुत बड़ा महत्व मिला है ।
जैन - परम्परा में भी दान को एक सत्कर्म माना गया है। जैन धर्म न एकान्त क्रियावादी है, न एकान्त ज्ञानवादी है और न एकान्त श्रद्धावादी ही है। श्रद्धान, ज्ञान और प्राचरण - इन तीनों के समन्वय से ही मोक्ष की संप्राप्ति होती है । फिर भी जैन धर्म को प्राचार - प्रधान कहा जा सकता है | ज्ञान कितना भी ऊँचा हो, यदि साथ में उसका आचरण नहीं है, तो जीवन का उत्थान नहीं हो सकता । जैन - परम्परा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को मोक्ष मार्ग कहा गया है । दान का सम्बन्ध चारित्र से ही माना गया है । आहारदान, श्रौषधदान और अभयदान आदि अनेक प्रकार के दानों का वर्णन विविध ग्रन्थों में उपलब्ध होता है । भगवान् महावीर ने 'सूत्रकृतांग' सूत्र में अभयदान को सबसे श्रेष्ठ दान कहा है- दाणाठा सेट्ठम भयप्पयाणं ।” दूसरों के प्राणों की रक्षा ही अभयदान है । आज की भाषा में इसे ही जीवनदान कहा गया है। दान के सम्बन्ध में महावीर ने, 'स्थानांग सूत्र' में कहा है - "मेघ चार प्रकार के होते हैं - एक गर्जना करता है, पर वर्षा नहीं करता । दूसरा वर्षा करता है, पर गर्जना नहीं करता । तीसरा गर्जना भी करता है और वर्षा भी करता है । चौथा न गर्जना करता है और न वर्षा करता है ।” मेघ के समान मनुष्य भी चार प्रकार के हैं - कुछ बोलते हैं, देते नहीं । कुछ देते हैं, किन्तु कभी बोलते नहीं | कुछ बोलते भी हैं और देते भी हैं । कुछ न बोलते हैं, न देते ही हैं । महावीर के इस कथन से दान की महिमा एवं गरिमा स्पष्ट हो जाती है । जैन परम्परा में धर्म के चार अंग स्वीकार किए हैं - दान, शील, तप एवं भाव । इनमें दान ही मुख्य एवं प्रथम है । "सुखविपाक सूत्र" में दान का ही गौरव गाया गया है ।
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