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सकारात्मक हिसा
थे ? कुछ भी कहा नहीं जा सकता । उसके नियतिवादी सिद्धान्त के अनुसार तो उसकी विचारधारा में दान का कोई फल नहीं है । दान से कोई लाभ नहीं और नहीं देने से कोई हानि भी नहीं ।
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बौद्ध परम्परा में प्राचार की प्रधानता रही । प्रज्ञा और समाधि का महत्त्व भी कम नहीं है, फिर भी प्रधानता शील की ही है । शील शब्द यहाँ व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । मनुष्य जीवन के उत्थान के लिए जितने भी प्रकार के सत्कर्म हैं वे सब शील में समाहित हो जाते हैं । बुद्ध ने शील को बहुत ही महत्त्व दिया है । तत्त्व पर इतना जोर नहीं दिया गया, जितना शील पर दिया गया है, जितना सदाचार पर दिया गया है। दान भी एक सत्कर्म है, अतः यह भी शील की ही सीमा के अन्दर आ जाता है। बौद्ध धर्म में बुद्धत्व प्राप्त करने के लिए जिन दशपारमिताओं का वर्णन किया गया है, उनमें से एक पारमिता दान को भी माना गया है । दान की पूर्णता भी बुद्धत्व लाभ का मुख्य कारण माना गया है । दान के सम्बन्ध में बुद्ध ने 'दीर्घनिकाय' में कहा है कि "सत्कार पूर्वक दान दो, अपने हाथ से दान दो, मन से दान दो, दोष रहित पवित्र दान दो ।" इस कथन में दान के विषय में चार बातें कही गई हैं- दान सत्कारपूर्वक हो, अपने हाथ से दिया गया हो, भावना पूर्वक दिया हो और दोष शून्य हो । इस प्रकार के दान को पवित्र दान कहा गया है । 'संयुत्तनिकाय' में भी बुद्ध ने कहा है - " श्रद्धा से दिया गया दान, प्रशस्त है । दान से भी बढ़कर धर्म के स्वरूप को समझाया है ।" इस कथन में स्पष्ट है कि यदि दान में श्रद्धा भाव नहीं है, तो वह दान, तुच्छ दान है । जो भी देना हो, जितना भी देना हो, वह श्रद्धा से दिया जाना चाहिए, तभी देने की सार्थकता कही जा सकती है । हीन भाव से दिया गया दान अथवा अनादर से दिया गया दान, प्रशस्त दान नहीं कहा जा सकता । 'धम्मपद' में भी दान के सम्बन्ध में बुद्ध ने बहुत सुन्दर कहा है " धर्म का दान, सब दानों से बढ़कर है । धर्म का रस, सब रसों से श्रेष्ठ है ।" धर्म-विमुख मनुष्य को धर्मपथ पर लगा देना भी एक दान ही है ।
बौद्ध परम्परा में अनेक व्यक्तियों ने संघ को दान दिया था । अनाथपिण्ड ने जेतवन का दान बौद्ध संघ को दिया था। राजगृह में,
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