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भारतीय साहित्य में दान की महिमा
[ 167 दर्शन में षोडश पदार्थों का अधिगम ही मुख्य माना गया है । न्यायशास्त्र में तो पदार्थ भी गौण है, मुख्य है प्रमाणों की मीमांसा । वैशेषिक की पदार्थ-मीमांसा और न्याय की प्रमाण-मीमांसा प्रसिद्ध है । साधना अथवा प्राचार का वहाँ कुछ भी स्थान नहीं है। फिर दान की मीमांसा को वहाँ स्थान मिलता भी कैसे ? अतः वहाँ पर दान का कोई विशेष महत्त्व नहीं कहा जा सकता। उसका कोई दार्शनिक आधार नहीं है । न्यायदर्शन ने ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए समग्र शक्ति लगा दी, और वैशेषिक ने परमाणु को सिद्ध करने के लिए । जीवन की व्याख्या वहाँ नहीं हो पाई।
योगदर्शन अवश्य ज्ञान-प्रधान न होकर क्रिया-प्रधान है । प्राचार का वहाँ विशेष महत्त्व माना गया है । मनुष्य के चित्त की वृत्तियों का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है । उसकी साधना का मुख्य लक्ष्य है-समाधि की सम्प्राप्ति । उसकी प्राप्ति के लिए यम, नियम, मासन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान को साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। यमों में अपरिग्रह और नियमों में सन्तोष का ग्रहण किया गया है। परन्तु दान की मीमांसा को कहीं पर भी अवसर नहीं मिला। दान का साधन के रूप में कहीं उल्लेख नहीं है । अतः यह सिद्ध होता है कि वेद मूलक षड्-दर्शनों में एक मीमांसा दर्शन को छोड़कर शेष पाँच दर्शनों में दान का कोई महत्त्व नहीं है । न उसका विधान है और न उसकी व्याख्या ही की गई है।
धमण परम्परा में दान मीमांसा .. वेद विरुद्ध श्रमण परम्परा के तीन सम्प्रदाय प्रसिद्ध हैं-जैन, बौद्ध
और आजीवक । आजीवक परम्परा का प्रवर्तक गोशालक था। वह नियतिवादी के रूप में भारतीय दर्शनों में बहुचर्चित एवं विख्यात था। उसकी मान्यता थी कि जो भाव नियत है, उन्हें बदला नहीं जा सकता। संसार के किसी भी चेतन अथवा अचेतन पदार्थ में कोई मनुष्य किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर सकता। सब अपने आप में नियत है। आज के इस वर्तमान युग में, प्राजीवक सम्प्रदाय का एक भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। अतः दान के सम्बन्ध में गोशालक के क्या विचार
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