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सकारात्मक हिंसा
मान्यता के कारण ही चार्वाक दर्शन में दान पर कुछ मीमांसा नहीं हो सकी । दान पर विचार का अवसर ही वहाँ पर उपलब्ध नहीं है । वर्तमान भोग ही वहाँ जीवन है ।
वैदिक दर्शनों में दान-मीमांसा
वेदगत परम्परा के षड्दर्शनों में सांख्यदर्शन और वेदान्तदर्शन ज्ञान - प्रधान रहे हैं । दोनों में ज्ञान को अत्यन्त महत्त्व मिला है । वहाँ आचार को गौण स्थान मिला है । सांख्य भेदविज्ञान से मोक्ष मानता है । प्रकृति और पुरुष का भेदविज्ञान ही साधना का मुख्य तत्त्व माना गया है । वहाँ प्रकृति और पुरुष - इन दो तत्त्वों का ही विश्लेषण किया गया है । इन दोनों का संयोग ही संसार है, इन दोनों का वियोग ही मोक्ष है । प्रकृति मोक्ष-शून्य है, तो पुरुष कर्तृत्व शून्य है। इस दर्शन में कहीं पर भी प्रचार को महत्त्व नहीं मिला । करना कुछ भी नहीं है, जो कुछ है, जानना है और समझना है । आचार पक्ष की गौणता होने के कारण 'दान' की मीमांसा नहीं हो सकी । दान का सम्बन्ध करने से है, आचार से है, क्रिया और कर्म से सम्बद्ध है ।
वेदान्त दर्शन की स्थिति भी यही रही है । कुछ मौलिक भेद अवश्य है । सांख्यद्व ेतवादी है, तो वेदान्त श्रद्वतवादी रहा है । ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है । यदि कुछ भी प्रतीत होता है, तो वह मिथ्या ही है । 'अहं ब्रह्मास्मि' इस भावना से समग्र बन्धन परिसमाप्त हो जाते हैं । वस्तुतः बन्धन है ही कहाँ ? उसकी तो प्रतीति मात्र हो रही है । अपने को प्रकृति और जीव न समझकर, एकमात्र ब्रह्म समझना ही विमुक्ति है । इस दर्शन में भी ज्ञान की प्रधानता होने से आकार की गौणता ही है । शम तथा दम आदि कुछ साधनों की चर्चा अवश्य की गई है, परन्तु वे साधना के अनिवार्य अंग नहीं हैं । यही कारण है कि वेदान्तदर्शन में भी दान की मीमांसा नहीं हो पाई । दान का सम्बन्ध चारित्र से है, और उसकी वहाँ गौणता है ।
न्यायदर्शन में तथा वैशेषिकदर्शन में, पदार्थ - ज्ञान को ही मुक्ति का कारण कहा गया है । वैशेषिकदर्शन में सप्त पदार्थों का तथा न्याय
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