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________________ भारतीय साहित्य में दान की महिमा [ 165 है, पाप कभी नहीं । यही धर्मवादी मान्यता है। पुण्यवाद, पापवाद और धर्मवाद की गूढ़ ग्रन्थियों को सुलझाने का समझाने का समय-समय पर प्रयास हुआ है, परन्तु कोई भी मान्यता जब रूढ़ हो जाती है, तब वह मिट नहीं पाती। किसी भी मान्यता को मिटाने का प्रयास भी स्तुत्य नहीं कहा जा सकता। मानव जाति के विचार के विकास की भी एक कड़ी है, उसकी अपनी उपयोगिता है, अपना एक महत्त्व है। भारत के वैदिक षड्दर्शनों में एक मीमांसा दर्शन ही पुण्यवादी दर्शन कहा जा सकता है। उसकी मान्यता है कि यज्ञ से पुण्य होता है, पुण्य से स्वर्ग मिलता है, स्वर्ग में सुख है । पुण्य क्षीण होने पर फिर संसार है । मोक्ष की स्थिति में उसे जरा भी रुचि नहीं है। यज्ञ से, तप से, जप से और दान से पुण्य होता है, यह इसी मीमांसा दर्शन की मान्यता रही है । यज्ञ नहीं करोगे, तो पाप होगा और यज्ञ करोगे तो पुण्य होगा। पाप और पुण्य की मीमांसा करना ही, मीमांसा दर्शन का प्रधान ध्येय रहा है । दान पर सबसे अधिक बल भी इसी दर्शन ने दिया है। इस दर्शन की मान्यता के अनुसार ब्राह्मण को दान देने से सबसे बड़ा पुण्य होता है। श्रमण परम्परा के दोनों सम्प्रदाय-जैन और बौद्ध, कहते हैं कि ब्राह्मण को दिया गया दान, पुण्य का कारण नहीं है। वह पाप दान है, वह धर्म नहीं हो सकता । मीमांसा दर्शन भी जैन श्रमणों को और बौद्ध भिक्षुत्रों को दिए गए दान को पाप का कारण मानता है, धर्म का नहीं। इस प्रकार की मान्यताओं ने दान की पवित्रता को नष्ट कर डाला । अपनी मान्यताओं में आबद्ध कर दिया। अपनों को देना धर्म, और दूसरों को देना पाप मानना इसी का परिणाम है। वेद विरोधी दर्शनों में एक चार्वाक दर्शन ही यह कहता है कि न दान करने से पुण्य होता है, न नहीं करने से पाप । पाप और पुण्य यह लुब्धक लोगों की परिकल्पना है, अन्य कुछ नहीं। न पाप है न पुण्य है, न लोक है न परलोक है । जो कुछ है, यहीं है, अभी है, आज ही है, कल कुछ भी नहीं। उसकी इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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