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भारतीय साहित्य में दान की महिमा
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ग्रहण कर रहा है, और देने वाला भी यही समझ रहा है, कि मैं यह देकर कोई उपकार नहीं कर रहा हूँ । लेने वाला मेरा अपना ही भाई है, कोई दूसरा नहीं है । इस प्रकार यह संविभाग शब्द अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है ।
बाद में आया 'दान' शब्द । इसमें न 'सहयोग' की सहृदयता है और न संविभाग की व्यापकता एवं दार्शनिकता ही । आज के युग में 'दान' शब्द काफी बदनाम हो चुका है । देने वाला दाता देता है, अहंकार में और लेने वाला ग्रहीता लेता है, सिर नीचा करके । देने वाला अपने को उपकारी मानता है और लेने वाला अपने को उपकृत । लेने वाला बाध्य होकर लेता है, और देने वाला भी दबाव से ही देता है । आज के समाज की स्थिति ही इस प्रकार की हो गई है, कि लेना भी पड़ता है, और देना भी पड़ता है । न लेने वाला प्रसन्न है, और न देने वाला ही । यही कारण है, कि 'दान' शब्द से पूर्व कुछ विशेषण जोड़ दिए गए हैं -- "करुणा दान, अनुकम्पादान एवं कीर्तिदान आदि । "
'दान' शब्द का अर्थ है - देना । क्या देना ? किसको देना ? क्यों देना ? इसका कोई अर्थ-बोध दान शब्द से नहीं निकल पाता । शायद, इन्हीं समस्याओं के समाधान के लिए 'दान' शब्द को युग-युगान्तर में परिभाषित करना पड़ा है । परन्तु कोई भी परिभाषा 'दान' शब्द को बाँधने में समर्थ नहीं हो सकी । 'दान' शब्द के सम्बन्ध में भेद-प्रभेद होते ही रहे हैं, मत-मतान्तर चलते ही रहे हैं, वादविवाद बढ़ते ही रहे हैं । धर्म के भवन में, मतवाद की जो भयंकर आग एक बार भभक उठती है, वह कभी भी बुझ नहीं पाती ।
दान की मान्यता पर मतभेद
दान की मान्यता के सम्बन्ध में, जो मतवाद की आग कभी प्रज्वलित हुई थी, उसके तीन विस्फोटक परिणाम सामने आए - ( १ ) दान पुण्य का कारण है, (२) दान पाप का कारण है और (३) दान धर्म का कारण है । जो लोग दान को शुभ भाव मानते हैं, उनके अनुसार दान से पुण्य होगा और पुण्य से सुख । जो दान को अशुभ
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