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भारतीय साहित्य में दान की महिमा श्री विजय मुनि, शास्त्री
भारत के समस्त धर्मों में, इस तथ्य में किसी भी प्रकार का विवाद नहीं है, कि 'दान' एक महान् धर्म है । दान की व्याख्या अलग हो सकती है, दान की परिभाषा विभिन्न हो सकती है, और दान के भेद - प्रभेद भी विभिन्न प्रकार के हो सकते हैं, परन्तु 'दान एक प्रशस्त धर्म है' इस सत्य में जरा भी अन्तर नहीं है । दान धर्म, उतना ही पुराना है, जितनी पुरानी मानव-जाति है । मानव-जाति में, दान कब से प्रारम्भ हुआ ? इसका उत्तर सरल न होगा । परन्तु यह सत्य है कि दान का पूर्व रूप सहयोग ही रहा होगा । संकट के अवसर पर मनुष्यों ने एक-दूसरे को पहले सहयोग देना ही सीखा होगा । सहअस्तित्व के लिए परस्पर सहयोग आवश्यक भी था । सहयोग के अभाव में समाज में सुदृढ़ता तथा स्थिरता कैसे श्रा पाती ? समाज में सभी प्रकार के मनुष्य होते थे - दुर्बल भी और सबल भी । अशक्त मनुष्य अपने जीवन को कैसे धारण कर सकता है ? जीवन धारण करने के लिए भी शक्ति की आवश्यकता है । शक्तिमान् मनुष्य ही अपने जीवन को सुचारु रूप से चला सकता था, और वह दुर्बल साथी को सहयोग भी कर सकता था । यह 'सहयोग' समानता के आधार पर किया जाता था, और बिना किसी प्रकार की शर्त के किया जाता था । न तो सहयोग देने वाले में अहंभाव होता था, और न सहयोग पाने वाले में दैन्य भाव होता था । भगवान् महावीर ने अपनी भाषा में, परस्पर के इस सहयोग को 'संविभाग' कहा था । संविभाग का अर्थ है -- सम्यक् रूप से विभाजन करना । जो कुछ तुम्हें उपलब्ध हुआ है, वह सब तुम्हारा अपना ही नहीं है, तुम्हारे साथी का तथा तुम्हारे पड़ौसी का भी उसमें सहभाव तथा सहयोग रहा हुआ है । महावीर के इस 'संविभाग' में न अहं का भाव है, और न दीनता का भाव | इसमें एकमात्र समत्व भाव ही विद्यमान है । लेने वाले के मन में जरा भी ग्लानि नहीं है, क्योंकि वह अपना ही हक
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