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प्राक्कथन
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है कि दया, दान आदि सकारात्मक अहिंसा धर्म है और इनसे पुण्य कर्म का उपार्जन होता है वह भी मुक्ति प्राप्ति में सहायक ही होता है, बाधक नहीं होता है । इस प्रकार, दया दान आदि सकारात्मक अहिंसा मुक्ति प्राप्ति में पूर्ण सहायक है किसी भी रूप में मुक्ति में बाधक नहीं है ।
तात्पर्य यह है कि दया, दान, अनुकंपा, करुणा, उदारता, उपकार, वात्सल्य, वैयावश्य सेवा, आत्मीयता, मैत्री आदि अहिंसा के समस्त सकारात्मक रूप धर्म हैं, जीव के स्वभाव हैं, पाप-क्षय के हेतु हैं, अतः मुक्ति में सहायक हैं । प्रस्तुत पुस्तक में इन सब विषयों का विस्तार से विवेचन एवं विश्लेषण किया गया है । इसमें जो भी विवेचन किया गया है वह स्वयं सिद्ध निजज्ञान पर आधारित है, वर्तमान जीवन से संबंधित है तथा परलोक, नरक, स्वर्ग आदि मान्यताओं व प्रस्थापनाओं से बिना जोड़े नैसर्गिक नियम के रूप में कहा गया है । इन्हीं विषयों को विशेष पुष्ट करने के लिए पुस्तक के द्वितीय खंड में तत्त्वज्ञ विद्वानों के लेख दिए गए हैं । जिनके लिए लेखक इन लेखों के लेखकों एवं प्रकाशकों का आभारी है ।
प्रस्तुत पुस्तक में पूर्वोक्त शंकाओं के समाधान हेतु कुछ सिद्धान्तों एवं सूत्रों को एकाधिक बार दोहराना पड़ा है। इसे पुनरुक्त दोष नहीं समझना चाहिये । कारण कि प्रस्तुत विषयों के प्रतिपादन को स्पष्ट एवं पुष्ट करने के लिए तथा मिथ्या धारणाओं का निरसन करने के लिए प्रसंगानुसार ऐसा करना आवश्यक था । ऐसा न करने से विषय अधूरा रह जाता और जिज्ञासानों एवं शंकाओं का सम्यक् समाधान नहीं हो सकता था ।
लेखक का यह दृढ़ विश्वास है कि आगम व कर्म - सिद्धान्त के सूत्र नैसर्गिक नियम हैं, अतः सनातन सत्य हैं । अतः इन्हीं प्रमाणों से निर्दिष्ट विषय को स्पष्ट एवं पुष्ट किया गया है । पाठकों से निवेदन
1 इस विषय पर विस्तृत विवेचन लेखक की 'पुण्य-पाप तत्त्व' पुस्तक में किया जाएगा ।
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