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सकारात्मक अहिंसा
क्षीणता या क्षयरूप विशुद्धिभाव भावात्मक पुण्य है। इस भावात्मक पुण्य का क्रियात्मक रूप दया, दान, सेवा, उदारता आदि सकारात्मक अहिंसा की प्रवत्तियाँ हैं जो क्रियात्मक पुण्य है। इस भावात्मक एवं क्रियात्मक पूण्य को ही जैन दर्शन में पूण्य तत्त्व कहा है। यह पुण्य तत्त्व प्रात्मा की पवित्रता का द्योतक है। यह नियम है कि आत्मा जितनी पवित्र होती जाती है उतना ही उसके इन्द्रिय, शरीर, प्राण-शक्ति आदि का विकास होता जाता है। इसे ही पुण्य प्रास्रव एवं पुण्य कर्म का उपार्जन कहा जाता है। पुण्य का आस्रव चित्त की कलुषता (कषाय) मिटने से होता है। अर्थात् शुद्धोपयोग से होता है। पुण्यास्रव से पुण्य कर्म की प्रकृतियों के प्रदेश व अनुभाग का सर्जन होता है । यह नियम है कि कर्म पुण्य रूप हो या पाप रूप हो, 'कर्म'धर्म नहीं होता। इसलिए पुण्य तत्व ही धर्मकी कोटि में आता है, पुण्य प्रास्रव तथा पुण्य कर्म प्रकृतियों को धर्म नहीं कहा जा सकता है । परन्तु पुण्यकर्म कर्म होने पर भी मुक्ति में बाधक नहीं है। इसीलिए कर्म सिद्धान्त में पुण्य कर्म की समस्त प्रकृतियों को पूर्ण रूप से अघाती कहा है, देशघाती भी नहीं कहा है । अर्थात् पुण्य कर्म की किसी भी प्रकृति से आत्मा के किसी भी गुण का अंशमात्र भी घात नहीं होता है। अपितु पुण्य कर्म से पाप कर्मों का संक्रमण व क्षय स्वतः होता है । अतः पुण्य कर्म भी मुक्ति-प्राप्ति में सहयोगी हैं, बाधक नहीं हैं। यह सही है कि पुण्य व पाप कर्मों का पूर्ण क्षय होने से मुक्ति होती है। परन्तु पाप कर्मों के क्षय के लिए ही साधना करनी पड़ती है, पुरुषार्थ करना पड़ता है, पुण्य कर्मों को क्षय करने के लिए किसी भी साधना की किंचित् भी आवश्यकता नहीं होती है, पाप कर्मों के साथ पुण्य कर्मों का स्थिति बंध स्वतः क्षय हो जाता है । इसीलिए समस्त जैन वाङ्मय में पूण्य कर्मों के क्षय करने व उनका प्रत्याख्यान करने के लिए कहीं भी किसी भी साधना का विधान नहीं है । तात्पर्य यह
1 चित्तम्हि णस्थि कलुसं पुण्णं जीवस्स प्रासवदि ।
-पंचास्तिकाय, गाथा 135 2 पुण्णस्सास्वभूदा अणुकंपा सुद्धो व उवजोगो ।
-जयधवलटीका, पुस्तक 1, पृष्ठ 96
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