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जीव का स्वभाव कहा है । स्वभाव को धर्म कहा है ।" अकरुणा को, निर्दयता को रौद्रध्यान कहा है, अधर्म कहा है । अनुकंपा को सम्यक्त्व का लक्षण कहा है। 2 साधु की चर्या में दया और अनुकंपा को प्रमुख स्थान दिया गया है । वात्सल्य को सम्यग्दर्शन का अंग व आचार कहा है ।" करुणा और मैत्री को संवर में स्थान दिया गया है ।" अहिंसा की दया, दान, सेवा आदि सकारात्मक रूप सद्प्रवृत्तियां यदि मुक्ति में बाधक होतीं, विभात्र होतीं तो जैनागमों में इनके प्रत्याख्यान का निषेध का विधान अवश्य होता । परन्तु ऐसा नहीं है । अत: इन्हें विभाव मानना, धर्म न मानना मूल भूल है ।
प्राक्कथन
पाप का क्षय होना ही आत्मा का पवित्र होना है । अतः पाप का क्षय होना और आत्मा का पवित्र होना युगपत् है । पाप के क्षय होने को धर्म कहा जाता है और आत्मा के पवित्र होने को पुण्य कहा जाता है । अत: धर्म और पुण्य दोनों का घनिष्ठ सम्बन्ध है । पुण्य को धर्म से अलग नहीं किया जा सकता । इसलिए जहां धर्म होता है वहां पुण्य होता है । जब हिंसा, झूठ, चोरी, क्रूरता आदि पाप प्रवृत्तियों का निरोध व त्याग होता है अर्थात् पाप का क्षय होता है तब स्वतः ही सत्य, अहिंसा, दयालुता, मृदुता आदि सद्प्रवृत्तिों का उद्भव होता है । इस दृष्टि से दया, दान, सेवा आदि सकारात्मक अहिंसा की समस्त प्रवृत्तियाँ पाप का क्षय करने वाली होने से धर्म रूप हैं और आत्मा को पवित्र करने वाली होने से पुण्य रूप हैं । अतः धर्म और पुण्य एकार्थक हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । कषाय की
1 करुणाए जीवसहावस्स । —घवलटीका, पुस्तक 13, पृष्ठ 392
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धम्मो वत्थुमहावो । - कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा 478
ध्यानशतक, गाथा 27
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4 प्रथम मंवेगानुकंपास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सम्यक्त्वं - धवला. 1/1,1,4
5 सव्वैहि भूएहि दयाणुकंपी.... - उत्तराध्ययन 21.13
6 निस्संकिय वच्छल्ल पभावणे भ्रट्ठ । -- उत्तरा 28 गा. 39
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मैत्री प्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि... तत्त्वार्थ सूत्र 7.6
8 श्रस्ति तावच्छुमोपयोगस्य धर्मेण सहैकार्थसमवायः ॥ - तात्पर्यवृत्ति
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