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सकारात्मक अहिंसा
उन्हें वे बिना भेदभाव के दान देते रहे हैं । दानसंपन्नता धर्म - ध्यान का लक्षण है 12
दया के क्रियात्मक रूप सेवा ( वैयावृत्त्य ) को आभ्यंतर तप में स्थान दिया गया है । अर्थात् वैयावृत्त्य को उपवास, प्रतिसंलीनता आदि बाह्य तपों से अधिक महत्त्वपूर्ण बताया है । आभ्यंतर तपों में भी सेवा को स्वाध्याय तप से अधिक महत्त्व दिया गया है और सर्व दुःखों से मुक्ति प्राप्ति का हेतु बताया है । सेवा में भी भगवान महावीर ने अपनी ( भगवान की ) सेवा करने की अपेक्षा दुःखी एवं पीड़ित व्यक्तियों की सेवा करने वाले को धन्यवाद का पात्र कहा है 12 जो दुःखियों की सेवा करता है वह मेरी सेवा करता है वह मेरे दर्शन की आराधना करता है । जिस व्यक्ति को जिस प्रकार की आवश्यकता हो उसकी उसी प्रकार सहायता करना सेवा है ।" करुणा को
1 तए णं मल्ली अरहा कल्ला कल्लि जाव मागो पायरासोत्ति बहूणं सणाहाण य प्रणाहाण य पंथियाण य पहियारण य करोडियाण य कप्पडियाण य एगमेगं हिरण्णकोडिं प्रट्ठ य अणूणाति सयसहस्साति इमेया रूवं प्रस्थ संप्रयाणं दलयति । - ज्ञाताधर्मकथा, श्रध्ययन 8, सूत्र 82
2 जिरणमाहु गुणविकत्तरण-पसंसणा दाणविणयसंपन्नो.. मुणेयव्त्र । - ध्यानशतक, गाथा 68
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इच्छं निश्रोइडं भंते ! वेयावच्चे व सज्झाए | वेयावच्चे निउत्तेणं कायव्वं अगिलायनो ।
सज्झाए वा निउत्तेणं सव्वदुःखविमोक्खणे ॥ - उत्तराध्ययन, 26.9-10
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कि भन्ते ! जे गिलाणं पडियरइ से धन्ने ? गोयमा ! जे गिलाणं पडियरइ से धण्णे । - श्रावश्यकसूत्र, हारिभद्रीयवत्ति, चतुर्थं श्रावश्यक |
5 जो गिलाणं पडियरइ सो मं पडियरइ । — प्रोघनियुक्ति सटीक, गाथा 62
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जे गिलाणं पडियरइ से मं दंसणेणं पडिवज्जइ ।
..धम्मज्भाणी
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-आवश्यकसूत्र हारिभद्रया वृत्ति, प्रतिक्रमण श्रावश्यक |
सेवणं जहाथाम वेयावच्चं तमाहियं । -- उत्तराध्ययन, 30.33
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