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दया, दान, अनुकंपा, करुणा, सेवा, मित्रता, वात्सल्य आदि समस्त सद्प्रवृत्तियां सकारात्मक, विध्यात्मक या क्रियात्मक अहिंसा के ही विविध रूप हैं । जैन वाङ्मय में दया को धर्म का मूल कहा है और प्राणियों पर अनुकम्पा करने को दया कहा है । धर्म उसे कहा जाता है जिससे मुक्ति की प्राप्ति हो । दया के फलस्वरूप मुक्ति की प्राप्ति होती है । यह तथ्य आज भी इतना मान्य है कि किसी भी जैन मुनि के प्रवचन के पश्चात् प्रवचन के सारांश को व्यक्त करते हुए सर्वप्रथम यह दोहा बोला जाता है - "दया सुखांनी बेलड़ी, दया सुखांनी खान । अनंता जीव मुक्ति गया, दया तणे फल जाण ॥ " अर्थात् दया सर्व सुखों की देने वाली है तथा आज तक अनंत जीव जो मुक्ति में गये हैं वे दया के परिणाम से ही गये हैं । ग्रतः दया का विरोध करना मुक्ति का विरोध करना है, धर्म का विरोध करना है, धर्म के मूल का उच्छेदन करना है । दया के विरोध व निरोध को अर्थात् दयाहीनता को, निदर्यता को धर्म मानना पाप को, अधर्म को धर्म मानना है, जो मिथ्यात्व है ।" निर्दयता को रौद्र ध्यान का लक्षण कहा है । " ज्ञान की सार्थकता भी दया में ही है ।" दयारहित ज्ञान निष्फल है, कुज्ञान है । दया का क्रियात्मक रूप दान है । अतः दान भी धर्म ही है । सभी वीतराग केवली अनंतदानी होते हैं । जितने भी तीर्थंकर आज तक हुए हैं वे दीक्षा ग्रहण करने के पूर्व एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण मुद्राएं प्रतिदिन दान देते रहे हैं । यह दान ग्रहण करने के लिए जो भी सनाथ, अनाथ, पथिक, प्रेष्य, भिक्षु आदि आते,
प्राक्कथन
1 (अ) दयामूलो भवेद्धर्मो, दया प्राण्यनुकम्पनम् || - जिनसेन,
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महापुराण, 21.5.92
( श्रा) 'मूल धम्मस्स दया' । -धर्मरत्नप्रकरण
दविहे मिच्छत्ते पण्णत्तं तंजहा - प्रधम्मे धम्मसण्णा, धम्मे अधम्मसण्णा -- स्थानांगसूत्र, दशवां स्थान | परवसणं निग्रो रोदज्भाणोवगयचित्तो ॥ - ध्यानशतक, गाथा 27 पढमं णाणं तम्रो दया । - दशवैकालिक सूत्र, अध्ययन 4
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5 दानं सीलं च तवो, मावो एवं चउव्विहो धम्मो ।'
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-सप्ततिशतस्थानप्रकरण, गाथा 96
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