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________________ xiv ] सकारात्मक अहिंसा कषाय में कमी होने से होता है। कषाय में कमी होने को क्षायोपशमिक भाव, शुभभाव व शुद्धभाव कहते हैं। क्षायोपशमिक या शुद्ध भाव से पुण्य का आस्रव होता है। कर्म सिद्धान्त का यह नियम है कि पुण्यास्रव से पापास्रव का निरोध होता है, संवर होता है, यथासातावेदनीय, उच्च गोत्र, त्रस, प्रादेय, यशकीत्ति आदि सदशक एवं गति-जाति आदि चौदह पिंड प्रकतियों का जब आस्रव होता है तब इनको विरोधिनी असातावेदनीय, नीच गोत्र, स्थावर, अनादेय, अयशकोत्ति आदि स्थावरदशक एवं गति आदि चौदह पिंड प्रकतियों में कथित पाप प्रकृतियों के प्रास्रव का निरोध (संवर) हो जाता है व इनका बंधना रुक जाता है, इसके साथ ही पूर्व में बंधे हुए पाप-कर्मों के स्थिति बंध व अनुभाव बंध का अपवर्तन (क्षय) होता है। इस प्रकार पुण्य कर्म के उपार्जन से पाप कर्मों का पास्रव व बंध तो रुकता ही है, साथ ही पहले बंधे हुए पाप कर्मों के स्थिति व अनुभाव बंध का क्षय भी होता है तथा पाप प्रकृतियों का पुण्य में संक्रमण होता है । आशय यह है कि (1) पुण्यतत्त्व (2) पुण्यास्रव और (3) पुण्यकर्म क्रमशः पाप, पापास्रव और पाप कर्म के विरोधी व घातक होते हैं, पाप का क्षय करने वाले होते हैं । पाप के क्षय से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है । ___यह सही है कि सकारात्मक अहिंसा की दया, दान आदि धार्मिक प्रवृत्तियों से पुण्य के आस्रव का उपार्जन होता है, परन्तु इससे भी असंख्य गुणा अधिक पुण्य के प्रास्रव का उपार्जन व पुण्य के अनुभाव की सर्जना संयम-त्याग-तप, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप निवृत्तिपरक साधनाओं से होता है। जब ये निवृतिपरक साधनाएं क्षपक श्रेणी में उत्कृष्ट रूप में होती हैं तब यशःकीति, उच्चगोत्र आदि समस्त पुण्य प्रकृतियों के अनुभाव में वृद्धि होकर इनका अनुभाव उत्कृष्ट हो जाता है । पुण्य कर्म-प्रकृतियों के अनुभाव के उत्कृष्ट होने पर ही साधक को केवल ज्ञान होता है । पुण्य के अनुभाव के अनुत्कृष्ट रहते न तो आज तक किसी को केवल ज्ञान हुआ है और न भविष्य में किसी को केवल ज्ञान होगा । पुण्य का यह उत्कृष्ट अनुभाग मुक्ति-प्राप्ति के अन्तिम समय तक उत्कृष्ट ही रहता है, अंश मात्र भी क्षीण नहीं होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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