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प्राक्कथन
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प्रवृत्तियों में अप्काय, वायुकाय आदि के असंख्य जीवों की हत्या होती है । हिंसा अधर्म है, पाप है । अतः इनसे धर्म व पुण्य नहीं हो सकता।
उपर्युक्त युक्तियों के अतिरिक्त इन्हीं से मिलती-जुलती अनेक अन्य युक्तियां भी दी जाती हैं, परन्तु उन सबका अभिप्राय एक ही है कि दया, दान आदि सद्प्रवृत्तियां विभाव हैं, अधर्म हैं, कर्म-बंध की व संसार-परिभ्रमण की हेतु हैं अतः हेय हैं, त्याज्य हैं।
उपर्युक्त सर्व मान्यताएं निर्दयता, हृदयहीनता, क्र रता, कठोरता पैदा करने वाली हैं, मानवता की घोर विरोधी एवं पूर्ण रूप से अधार्मिक हैं । प्रस्तुत पुस्तक में उपर्युक्त युक्तियों एवं मान्यताओं को अनेक प्रमाणों से आगम-विरुद्ध, मिथ्या, निराधार व तथ्यहीन सिद्ध किया गया है तथा कर्मसिद्धान्त एवं प्रागम से यह प्रमाणित किया गया है कि अनुकंपा, करुणा, दया, दान, वैयावृत्त्य (सेवा) आदि समस्त सद्प्रवृत्तियां रूप सकारात्मक अहिंसा धर्म है, स्वभाव है एवं कर्म-क्षय की हेतु है; कर्म-बंध की हेतु नहीं है, क्योंकि औदयिक भाव ही कर्म-बंध के कारण होते हैं । अन्य कोई भाव कर्म बंध के कारण नहीं होते हैं और दया-दान आदि प्रवत्तियाँ किसी भी कर्म के उदय से नहीं होती हैं । अतः औदयिक भाव नहीं होने से ये कर्म बंध की कारण नहीं हैं । औदयिक भावों में भी कषाय का उदय ही कर्म का कारण है। क्योंकि कषाय के उदय से ही कर्मों का स्थितिबंध व अनुभाग बंध होता है । स्थिति बंध से ही कर्म आत्मा के साथ टिके रहते हैं, जुड़े रहते हैं । स्थिति बंध के अभाव में कर्म-बंध संभव ही नहीं है। इसलिए स्थिति बंध के क्षय को ही कर्म का क्षय कहा है । कर्म की फल देने की शक्ति को अनुभाव या अनुभाग कहते हैं । पाप कर्मों के अनुभाव का सर्जन कषाय से होता है । कषाय के वृद्धि-ह्रास से पापकर्मों के अनुभाव में वृद्धि-ह्रास होता है । अतः कषाय का उदय ही कर्मों के स्थिति-बंध का व पाप कर्मों के अनुभाव के बंध का हेतु है। कषाय की कोई भी प्रवृत्ति या प्रकृति पुण्य रूप नहीं होती है। कषाय की सभी प्रकृतियां पाप रूप ही हैं । अत: कर्म बंध का कारण पुण्य के साथ रहा हुआ कषाय भाव है या पाप है, पुण्य नहीं है । पुण्य
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