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________________ xii ] सकारात्मक अहिंसा (2) सद्प्रवृत्तियाँ शुभ योग हैं। शुभ योग पुण्य कर्म के आस्रव व बन्ध का हेतु है और कर्म-बंध मुक्ति में बाधक है । ( 3 ) दया, दान आदि सद्प्रवृत्तियाँ पुण्य रूप हैं । पुण्य धर्म नहीं है। धर्म के बिना मुक्ति नहीं मिलती है । ( 4 ) दया, दान आदि सद्प्रवृत्तियों में जीवों की हिंसा होती है । हिंसा पाप है । पाप त्याज्य है । ( 5 ) दया, दान आदि से जिस जीव की रक्षा की जाती है, वह जीव मिध्यादृष्टि होने से, बचने के पश्चात् पाप प्रवृत्ति करता है । अतः बचाने वाले को पाप कर्म के अनुमोदन का पाप लगता है । ( 6 ) एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक सभी जीव समान हैं । अतः इनके मारने में समान हिंसा होती है, समान पाप लगता है । अतः किसी एक जीव को बचाने के लिए असंख्य एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा करना घोर पाप है । (7) कोई जीव किसी दूसरे जीव को मार रहा है तो उस जीव को बचाने से उसे मारने वाले जीव को दुःख होता है । अतः यह हिंसा है । हिंसा से बचने में ही हित है । ( 8 ) कोई जीव किसी दूसरे जीव को मार रहा है । इस घटना में मरते हुए जीव को बचाने का मतलब है उस जीव के प्रति राग है और जिससे बचाया जा रहा है उसके प्रति द्वेष है । राग-द्वेष पाप हैं, संसार में परिभ्रमण कराने वाले हैं । ( 9 ) दया, दान आदि सद्प्रवृत्तियों में सहायता व रक्षा करने का संकल्प होता है और उस संकल्प की पूर्ति न होने से विकल्प होता है । संकल्प-विकल्प कर्म-बंध व संसार - परिभ्रमण के कारण हैं । 1 ( 10 ) दया, दान आदि प्रवृत्तियाँ पुण्य कर्म - बंध की हेतु हैं, अतः विभाव हैं, प्रधर्म हैं, हेय हैं । ( 11 ) एक क्रिया के पुण्य-पाप अथवा धर्म-अधर्म ये दोनों फल नहीं हो सकते । दया, दान, सेवा आदि अहिंसा की सकारात्मक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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