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भारतवर्ष में हिन्दू, जैन, बौद्ध आदि अगणित धर्म एवं सम्प्रदाय हैं । ये सभी हिंसा को धर्म मानते हैं । हिंसा के दो अर्थ हैं-1. निषेधात्मक और 2. विध्यात्मक । अहिंसा का निषेधात्मक अर्थ हैहिंसा न करना और विध्यात्मक अर्थ है दया, दान, सेवा परोपकार आदि सद्प्रवृत्तियां करना । प्रायः सभी धर्म एवं जनसाधारण हिंसा के इन दोनों अर्थों को धर्म के रूप में स्वीकार करते हैं । परन्तु इन धर्मों की कुछ उपसंप्रदायें हैं जो अहिंसा के विध्यात्मक एवं सकारात्मक रूप दया, दान, सेवा आदि सद्प्रवृत्तियों को धर्म नहीं मानती हैं, इन्हें पुण्य मानती हैं। उनका कहना है कि पुण्य से कर्म बन्ध होता है और कर्म-बन्ध से संसार परिभ्रमण होता है । इस प्रकार प्रकारान्तर से इन संप्रदायों के अनुयायी दया, दान आदि सद्प्रवृत्तियों को संसार परिभ्रमण का कारण मानते हैं और ये अपनी इस मान्यता पर इतना जोर देते हैं कि जो इस मान्यता को नहीं मानते हैं उन्हें ये मिथ्यादृष्टि मानते हैं तथा मुक्ति पाने के अधिकारी व पात्र नहीं मानते हैं । इनका कथन है कि जीव के अब तक मुक्ति न पाने का कारण पुण्य को हेय व त्याज्य नहीं मानना ही है | इनका मन्तव्य है कि यदि जीव ने जैसे पाप कर्म को हेय व त्याज्य माना उसी प्रकार पुण्य कर्म ( दया दान आदि) को हेय व त्याज्य माना होता तो अब तक वह कभी का मुक्त हो गया होता। कुछ का तो यह भी कहना है कि दया, दान आदि सद्प्रवृत्तियों से एकेन्द्रिय आदि जीवों की हिंसा होती है इसलिए ये पाप हैं, अधर्म हैं । अधर्मं को धर्म मानना मिथ्यात्व है । इस प्रकार दया, दान आदि सद्प्रवृत्तियों को, सकारात्मक हिंसा को मुक्ति में बाधक व अधर्म मानने के सम्बन्ध में जो युक्तियां दी जाती हैं उनमें मुख्य युक्तियां इस प्रकार हैं,
यथा
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प्राक्कथन
(1) दया, दान आदि सद्प्रवृत्तियाँ क्रिया रूप होने से कर्म-बन्ध की हेतु हैं, अतः त्याज्य हैं ।
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