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धान और पुण्य : एक विवेचन
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पुण्य के नौ भेद
पुण्य की चर्चा में अधिक गहरे नहीं जाकर हम अपने विषय क्षेत्र में ही रहना चाहते हैं। क्योंकि दान का प्रकरण चल रहा है और इस प्रकरण में हमें दान और पुण्य पर कुछ विचार करना है । क्या दान में एकान्त धर्म ही होता है, या जहाँ धर्म नहीं, वहाँ पुण्य भी हो सकता है ? यह प्रश्न हमारे सामने है। और इसी सन्दर्भ में हमने उक्त विचार प्रकट किये हैं कि आगमों में उक्त दोनों विचारों का स्पष्ट समर्थन मिलता है।
स्थानांग सूत्र में पुण्य के नौ स्थान (कारण) बताये हैं- जैसे - 1. अन्न पुण्णे
6. मण पुण्णे 2. पाण पुणे
7. वयण पुणे 3. वत्थ पुणे
8. काय पुणे 4. लयण पुण्णे ६. नमोक्कार पुण्णे 5. सयण पुण्णे
यहाँ पुण्य का अर्थ है पुण्य कर्म की उत्पत्ति के हेतु कार्य । अन्न, पान (पानी) वस्त्र, स्थान, शयन (बिछौना) आदि के दान से तथा मन, वचन, काया आदि की शुभ (परोपकार प्रधान) प्रवृत्ति से एवं योग्य गुणी को नमस्कार करने से पुण्य प्रकृति का बन्ध होता है। ये पुण्य के कारण हैं, कारण में कार्य का उपचार कर इन कारणों को पुण्य की संज्ञा दी गई है । अर्थात् अन्नदान से अन्न पुण्य, पान (जल) दान से पान पुण्य इसी प्रकार अमुक कारण से जो पुण्य होगा उसे वही संज्ञा दी गई है।
पुण्यजनक वान : एक चर्चा .. कुछ लोगों का कहना है कि पूर्वोक्त नौ प्रकार का पुण्य तो केवल महाव्रती साधु-साध्वियों को देने से ही फलित होता है, अन्य को देने से नहीं। उनका यह तर्क है, अगर गृहस्थ को दान देने से ही फलित होता है तो वहां धनपुण्य, हस्तिपुण्य या वाहनपुण्य आदि का भी उल्लेख होता; परन्तु ऐसा उल्लेख नहीं है। वहाँ साधुवर्ग के लिए
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