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________________ 160 ] सकारात्मक पहिसा कल्पनीय, ऐषणीय या ग्राह्य वस्तुओं का ही उल्लेख है । इसका समा. धान यह है कि अन्य दानों की गणना तो दस प्रकार के दानों में आ ही जाती है, सिर्फ वे दान, जिनसे कर्मक्षय न होकर पुण्यबन्ध होता है, उनका उल्लेख करना शेष रह गया था, इसलिए सद्गृहस्थों को या अनुकम्पा पात्रों को देने योग्य सामान्य वस्तुएँ गिनाई गई हैं। धन या हाथी की अपेक्षा मुसीबत में पड़े मनुष्य को अन्न, वस्त्र और प्रावास की सर्वप्रथम आवश्यकता होती है। इसलिए नौ प्रकार के पुण्योत्पादक दान सर्वसाधारण, अनुकम्पापात्र या तथाविध पात्र के लिए हैं और फिर साधु-साध्वी को ये वस्तुएँ देने से तो पुण्य बन्ध से भी आगे बढ़कर कर्म-निर्जरा होती है जिसका साक्षी भगवती सूत्र का पाठ है । अन्न की अपेक्षा उनके लिए अभीष्ट चतुर्विध आहार का दान कल्पनीय होता है । इस दृष्टि से भी साधु वर्ग की अपेक्षा सद्गृहस्थों या अनुकम्पा के पात्र को देने से नवविध पुण्य का होना अधिक प्रमाणित या संभावित है। अगर साधूवर्ग को देने में ही इस नवविध पुण्य को परिसमाप्त कर दिया जाएगा तो फिर जहाँ साधुवर्ग नहीं पहुँच पाता है, जहाँ उसके दर्शन भी दुर्लभ हैं, वहाँ तो पुण्य वृद्धि या पुण्योपार्जन का कोई कारण नहीं रहेगा। वहाँ के लोग तो पूर्व पुण्य क्षीण कर देंगे, नये पुण्य का उपार्जन नहीं कर सकेंगे। फिर तो उनके लिए पुण्योपार्जन की कहीं भी कोई गुंजाइश नहीं रहेगी। परन्तु ऐसा है नहीं । नौ प्रकार के पुण्य तो सर्वसाधारण योग्य पात्र को सार्वजनिक रूप में या व्यक्तिगत रूप में दान करने से उपाजित हो सकते हैं, होते हैं, हुए हैं। ऐसा अर्थ ही अधिक संगत मालूम होता है। इस अर्थ से प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह किसी भी धर्म-सम्प्रदाय, जाति-कौम या देश-कुल का हो, अपने स्थान या क्षेत्र में रह कर भी पुण्य उपार्जित कर सकता है। शास्त्र में जैसे पापार्जन के १८ प्रकार बताए हैं, वैसे ही पुण्योपार्जन के ये ह भेद बताए हैं। इन्हीं ६ प्रकारों में संसार के सभी प्रमुख पदार्थ आ जाते हैं, जिनसे पुण्योपार्जन किया जाता है, बशर्ते कि ये ६ पदार्थ तद्योग्य पात्र को परिस्थिति देखकर दिए जाएँ। इसी कारण हमने दान के प्रकारों में इन नवविध पुण्योत्पादक दानों का उल्लेख और विश्लेषण किया है। . .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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