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दान और पुण्य : एक विवेचन
[ 157 होती है । अशुभ कर्म का निरोध होना संवर है, बन्धे हुए अशुभ कर्मों का क्षय होना निर्जरा है और नए शुभ कर्म का बन्धना पुण्य है। तो संयंती आदि को दान आदि देने से संवर-निर्जरा रूप धर्म भी होता है। किन्तु जो पूर्णव्रती नहीं है, संयतासंयती या असंयती है, फिर भी दान या सेवा के पात्र हैं, तो उनको दान देने से, उन पर अनुकम्पा करने से, उनकी सेवा करने से भले ही संवर रूप धर्म न हो, किन्तु पुण्य का बन्ध अवश्य होता है। उस सेवा-दान-अनुकम्पा आदि के फलस्वरूप जीव को पुण्य की प्राप्ति होती है । जैसा कि प्राचार्य उमास्वाति ने बताया कि
"भूत अनुकम्पा, व्रती अनुकम्पा, दान, सराग-संयम, शांति और शौच-ये छह साता वेदनीय कर्म (सुख) के हेतु हैं।
इस मान्यता के अनुसार जिस प्रवृत्ति में धर्म नहीं उसमें पुण्य भी नहीं। व्रती, संयमी को दान देना, उनकी सेवा करना इसी में धर्म है और इसी में पुण्य है। अवती तथा व्रताव्रती की सेवा तथा दान में धर्म भी नहीं और पुण्य भी नहीं।
यह मान्यता सिर्फ एक सम्प्रदाय की है, जैन जगत् के प्रायः मूर्धन्य विचारकों और विद्वानों ने इस धारणा का डटकर खण्डन किया है। क्योंकि इससे दान, सेवा आदि का क्षेत्र बहुत ही संकुचित हो जाता है, सिर्फ साधु को दान देना ही उनकी दृष्टि में धर्म है, पुण्य है, बाकी सब पाप है। पाप शब्द की जगह भले ही वे 'लोक व्यवहार' अथवा 'सामाजिक कर्तव्य' आदि मधुर शब्दों का प्रयोग करते हों, किन्तु इनसे उनका प्राशय तो 'पाप' ही है। उनसे पूछा जाय कि पापपुण्य के अलावा तीसरा कोई तत्त्व है क्या ? जिस कार्य में आप पुण्य नहीं मानते उससे विपरीत उसे 'पाप' कहने में क्यों हिचकते हैं ? अगर वास्तव में ही संयती के अतिरिक्त किसी को देना पाप है तो उसे स्पष्ट रूप से, निर्भीक होकर मानना और कहना चाहिए अन्यथा मान्यता में परिष्कार करना चाहिए। वह सिद्धान्त क्या काम का, जिसे स्पष्ट कहने में भी डर लगे, जीभ अटके और जी कतराये ? फिर आगम की कसौटी पर भी तो वह कहाँ खरा उतरेगा?
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