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उत्तर में भगवान् महावीर ने बताया
कालोदाई ! जीवाणं कल्लाणाकम्मा कल्लाणफल विवागसंजुत्ता कज्जति । "
कालोदायी ! जीवों द्वारा किए गए शुभ कर्म ही उनके लिए शुभ फल देने वाले होते हैं ।
सकारात्मक हिंसा
वास्तव में धर्म की क्रिया द्वारा, शुभप्रवृत्ति द्वारा दो कार्य निष्पन्न होते हैं- अशुभ कर्म की निर्जरा और शुभकर्म का बन्ध । अर्थात् पाप का क्षय और पुण्य का बन्ध । पाप-क्षय से आत्मा उज्ज्वल होती हैं और पुण्य बन्ध से जीव को सुख की प्राप्ति होती है । पुण्य की परिभाषा ही यही है
सुहहेउ कम्मपगइ पुन्नं 14
-सुख की हेतुभूत कर्म प्रकृति पुण्य है ।
पुण्य के सम्बन्ध में पहली एक सर्वसम्मत मान्यता तो यह है कि पुण्य भी बन्ध है, कर्मसंग्रह है और मोक्षकामी जीव के लिए वह बन्धन रूप होने से त्याज्य ही है । पाप लोहे की बेड़ी है और पुण्य सोने की
है। बेड़ी टूटने से ही मुक्ति होगी चाहे सोने की हो या लोहे की । किन्तु यह भी सभी प्राचार्यों ने माना है कि पहले लोहे की बेड़ी तोड़ने का प्रयत्न करना चाहिए अर्थात् पाप नाश के लिए ही पुरुषार्थ करना चाहिए | पुण्य क्षय के लिए कोई भी समझदार व्यक्ति प्रयत्न नहीं करता और न यह उचित ही है । क्योंकि पुण्य का भोग ही पुण्य का स्वत: क्षय करता है अतः मुक्तिकामी को भी पुण्य के विषय में अधिक चिंतित होने की आवश्यकता नहीं । अपितु पुण्यबन्ध के हेतु भूत शुभ कर्मों का प्राचरण करना चाहिए ।
दूसरी एक मान्यता है जिसमें दो मत हैं। एक परम्परा है - जो शुभकर्म, धर्माचरण, दान, सेवा, दया, उपकार आदि कार्य से धर्म भी मानती है और पुण्य भी । जैसे व्रती, संयती आदि को दान देना, उनकी सेवा करना धर्म है, इससे संवर तथा निर्जरा रूप धर्म की वृद्धि
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