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दान और पुण्य : एक विवेचन
0 उपाध्याय श्री पुष्करमुनि जी म. भारतीय संस्कृति के सभी चिन्तकों ने पुण्य-पाप के सम्बन्ध में विस्तार से चिन्तन किया है। मीमांसक दर्शन ने पुण्य-साधन पर अत्यधिक बल दिया है। उनका अभिमत है कि पुण्य से स्वर्ग के अनुपम सुख प्राप्त होते हैं। उन स्वर्गीय सुखों का उपभोग करना ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है, पर जैनदर्शन के अनुसार प्रात्मा का अन्तिम लक्ष्य 'मोक्ष' है । मोक्ष का अर्थ है-पुण्य-पाप रूप समस्त कर्मों से मुक्ति पाना ।। यह देहातीत या संसारातीत अवस्था है। जब तक प्राणी संसार में रहता है, देह धारण किये हुए है, तब तक उसे संसारव्यवहार चलाना पड़ता है और उसके लिए पुण्य कर्म का सहारा लेना पड़ता है। पाप कर्म से प्राणी दुःखी होता है, पुण्य कर्म से सुखी। प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है, स्वस्थ शरीर, दीर्घ आयुष्य, धन-वैभव, परिवार, यश-प्रतिष्ठा-आदि की कामना प्राणी मात्र करना है। सुख की कामना करने से सुख नहीं मिलता, किन्तु सुख प्राप्ति के कार्यसत्कर्म (धर्माचरण) करने से ही सुख मिलता है। उस सत्कर्म को ही शुभयोग कहते हैं । आचार्य उमास्वाति ने कहा है-.
योगः शुद्धः पुण्यात्रवस्तु पापस्य तद्विपर्यासः शुद्ध योग पुण्य का प्रास्रव (आगमन) करता है, और अशुद्ध योग पाप का।
शुभयोग, शुभभाव अथवा शुभपरिणाम तथा सत्कर्म प्रायः एक ही अर्थ रखते हैं । केवल शब्द-व्यवहार का अन्तर है।
मतलब यह हुआ कि सुख चाहने वाले को शुभयोग का आश्रय लेना होगा। शुभयोग से ही पुण्यबंध होता है । एक बार कालोदायी श्रमण ने भगवान् महावीर से पूछा-'जीवों को सुख रूप शुभफल (पुण्य) की प्राप्ति कैसे होती है ?
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