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सकारात्मक अहिंसा
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और भाव नहीं। इसलिए दान को गृहस्थ के लिए परमधर्म कहा है, और इसी कारण उसको प्राथमिकता दी गई है।
वैदिकधर्म के व्यवहारपक्ष का प्रतिपादन करने वाले मनुस्मृति प्रादि ग्रन्थों में गृहस्थ के लिए प्रतिदिन दान की परम्परा चालू रखने हेतु 'पंच वैवस्वतदेवयज्ञ' का विधान है। अर्थात् गृहस्थ के द्वारा होने वाले प्रारम्भजनित दोषों को कम करने के लिए भोजन तैयार होते ही सर्वप्रथम गाय, कुत्ता, कौमा, अग्नि एवं अतिथि इन पांचों के लिए ग्रास निकाला जाय । शील, तप या भाव का विधान वहाँ सभी गृहस्थों के लिए नहीं किया गया है। इस दृष्टि से भी दान को प्रथम स्थान दिया गया हो तो कोई आश्चर्य नहीं । इसीलिए परमात्मप्रकाश में स्पष्ट कहा है गृहस्थों के लिए आहारदान आदि परमधर्म हैं।
दान को प्राथमिकता देने का एक कारण यह भी सम्भव है कि जगत् में निःस्पृह, त्यागी साधु, सन्त या तीर्थंकर आदि ज्ञान-दर्शनचारित्र का उपदेश, प्रेरणा या मार्गदर्शन न देते या न दें तो मनुष्य दुर्लभबोधि, बर्बर, नरभक्षी या पिशाचवत् अतिस्वार्थी बना रहता । अफ्रीका के नरभक्षी मनुष्यों को मानव (इन्सान) बनाने में वहाँ के साधुओं (पादरियों व धर्मगुरुओं) ने बहुत कष्टसाध्य तप किया है। परन्तु उनमें जो भिक्षाजीवी या गृहस्थों के दान पर आश्रित साधु, सन्त हैं, उनको जीवन की आवश्यक वस्तुएँ गृहस्थ लोग दान में देकर पूर्ति करें तभी वे साधु अपने शरीर, मन, बुद्धि आदि को स्वस्थ और सशक्त रखकर संघ (समाज) सेवा का उक्त महान कार्य कर सकते हैं। इस प्रकार के मुनियों, श्रमणों या साधु-सन्तों को आहारादि दान देकर गुहस्थ को शेष अन्न को प्रसाद के रूप सेवन करना चाहिए। सत्पात्र को दान देना श्रावक का मुख्य धर्म बताया है। रयणसार में इसी बात का समर्थन स्पष्टरूप से किया गया है
जो मुणिभुत्तसेसं भुजइ सो भुजए जिणवददिट्ठ। संसारसारसोक्खं कमसो णिव्वाणवरसोक्खं ॥ दाणं पूजामुक्खं सावयधम्मे, ण सावया तेण विणा ।
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