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धर्म में दान को प्रथम स्थान क्यों ?
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- अर्थात् जो भव्य जीव मुनिवरों को आहार देने के पश्चात् अवशेष अन्न को प्रसाद समझ कर सेवन करता है, वह संसार के सारभूत उत्तम सुखों को पाता है और क्रमशः उत्तम मोक्षसुख को भी प्राप्त कर लेता है।
. सुपात्र को आहारादि चार प्रकार का दान देना श्रावक का मुख्य धर्म है। जो इन दोनों को मुख्य कर्त्तव्य मानकर पालन करता है, वही श्रावक है, धर्मात्मा व सम्यग्दृष्टि है । दान के बिना श्रावक श्रावक नहीं रहता।
इस पर से जाना जा सकता है कि दान जब जीवन में अनिवार्य कर्तव्य है, तो उसे प्राथमिकता दिया जाना कथमपि अनुचित नहीं है ।
दान को पहला स्थान केवल इस लोक में ही नहीं, देवलोक में भी दिया जाता है। यहाँ से आयुष्य पूर्ण करके जो भी व्यक्ति स्वर्ग में पहुंचता है, उसके लिए पहला प्रश्न यह अवश्य पूछा जाता है--कि वा दच्चा, किं वा भुच्चा, किं वा किच्चा, किं वा समायरित्ता ? अर्थात् यह मनुष्यलोक से स्वर्ग में आया हुआ जीव वहाँ क्या दान देकर, क्या उपभोग करके, क्या कार्य करके अथवा क्या आचरण करके आया है ? मतलब यह है कि देवलोक में पहुँचते ही सर्वप्रथम और बातों का स्मरण न करके दान के विषय में ही पूछा जाता है, दान की ही बात सबसे पहले याद की जाती है, अन्य बातें बाद में पूछी जाती हैं।
__ इससे आप अन्दाजा लगा सकते हैं कि महापुरुषों ने दान को धर्म के चार अंगों या मोक्ष के चार मार्गों में पहला स्थान क्यों दिया है !
सन्दर्भ 1. 'दानं सीलं च तवो भावो एवं चउविहो धम्मो । सव्वजिणेहिं भरिणप्रो, तहा दुहा सुपाचरिते हिं ।।
- सप्ततिशतस्थान प्रकरण गा. 96. 2. दुर्गति-प्रपतज्जन्तुधारणाद् धर्म उच्यते । दानशील-तपोभावभेदात् स तु चतुर्विधः ।।
-त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरित 1.11.52
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