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________________ धर्म में दान को प्रथम स्थान क्यों ? [ 151 संविभागवत निश्चित किया है, ताकि गृहस्थ अपनी आय एवं साधनों में से यथोचित संविभाग उत्कृष्ट साधकों, सेवाव्रती संस्थाओं एवं अभावग्रस्त व्यक्तियों के लिए करे। एक और कारण है, दान को प्राथमिकता देने का, वह यह है कि बृहस्थ के जीवन में कूटने, पीसने, पकाने, पानी के घड़ों को भरने तथा सफाई करने आदि में अनेक प्रकार के प्रारम्भ-समारम्भ होते रहते हैं, अतः इनके जरिये घर में जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट पात्र एवं अतिथि मादि को देने पर पुण्य तथा निःस्वार्थ व उत्कट भावना से योग्य पात्र को देने पर धर्म का लाभ हो सकता है। इस दृष्टि से गृहस्थ के लिए दान अनिवार्य तथा प्रतिदिन की शुद्धि का कारण होने से उसे महाधर्म भी कहा है। पद्मनन्दि पंचविंशतिका में स्पष्ट कहा गया है नानागृहव्यतिकराजितपापपुजैः, खजीकृतानि गृहिणो न तथा व्रतानि । उच्चैः फलं विदधतीह यथैकदापि, प्रीत्या तिशुद्धमनसा कृतपात्रदानम् ।। 2.13 ।। अर्थात् लोक में अत्यन्त विशुद्ध मन वाले गृहस्थ के द्वारा प्रीतिपूर्वक पात्र के लिए दिया गया दान जैसे उन्नत फल को देता है, वैसा फल घर की अनेक झंझटों से उत्पन्न हुए पापसमूहों के द्वारा कुबड़े यानी शक्तिहीन किये हुए गृहस्थ के व्रत नहीं देते। इस विषय में प्राचार्यों ने और अधिक स्पष्टीकरण किया हैप्रश्न उठाया गया है कि दानादि ही श्रावकों (गृहस्थों) का परमधर्म कैसे है ? इसका उत्तर दिया है- "ये गृहस्थ लोग हमेशा विषयकषाय के अधीन हैं, इस कारण इनके आर्तरौद्रध्यान उत्पन्न होते रहते हैं। इसलिए निश्चयरत्नत्रय रूप शुद्धोपयोग परमधर्म का तो इनके ठिकाना ही नहीं है, यानी अवकाश ही नहीं है।" तात्पर्य यह है कि गृहस्थ के द्वारा हुए प्रारम्भजनित पापों की शुद्धि के लिए दानधर्म जितना आसान होता है, उतना शील, तप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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