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सकारात्मक महिला
एवं समाज में भी दूर तक दानाचरण के पवित्र परमाणु अपना प्रभाव डालते हैं। सारे वायुमण्डल को दान का आचरण स्वच्छ बना देता है, जबकि तप, शील या भाव के संस्कार सहसा नहीं पड़ते, न ही छोटे बच्चे उन संस्कारों को ग्रहण कर सकते हैं। दान के आचरण से या बालक के हाथ से स्वयं दान कराने से उसमें बहत ही शीघ्र उदारता, सहानुभूति आदि के संस्कार जड़ जमा लेते हैं । यही कारण है कि तप, शील या भाव को प्राथमिकता न देकर इन चारों में दान को प्राथमिकता दी गई।
पाँचवाँ कारण दान को प्राथमिकता देने का यह है कि दान से समाज को सहयोग मिलता है, समाज पर दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, बाढ़, सूखा, भूकम्प आदि प्राकृतिक प्रकोप प्रा पड़ने पर दान से ही उस प्रापत्ति का निवारण हो सकता है, वह संकट मिट सकता है, जबकि तप, शील या भ व से समाज को ऐसे प्राकृतिक दुःख निवारण में प्रत्यक्ष में उतना सहयोग या सहारा नहीं मिलता। समाज के अनाथ, अपाहिज, दीन-दुःखी या अभावग्रस्त व्यक्ति को दान से ही तुरन्त सहारा मिल सकता है, उसका संकट मिटाया जा सकता है। इसलिए दान को ही पहला स्थान दिया जाना उचित है ।
छठा कारण दान को प्रथम स्थान मिलने का यह प्रतीत होता है कि समाज में व्याप्त विषमता, अभाव, शोषण या असमानता को मिटाने के लिए दान का होना अनिवार्य है। धनिकों के धन का, यदि समाज में व्याप्त विषमता को कुछ अंश तक कम करने के लिए दान के रूप में व्यय होता जाय अथवा समाज की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने में उनकी धनराशि व्यय होती रहे, जैसे कि औषधालय, विद्यालय, अनाथालय आदि संस्थाओं को दिया जाता रहे तो समाज में व्याप्त असंतोष और प्रतिक्रिया दूर हो सकती है। समाज में सुव्यवस्था और सुख-शान्ति व्याप्त हो सकती है। इसी दृष्टिकोण से दान जितना समाज के लिए लाभदायक, सुख-शान्तिवर्द्धक एवं विषमतानाशक हो सकता है, उतने अन्य साधन नहीं। अतः दान को उत्कृष्ट मानकर प्रथम स्थान दिया गया है। श्रमण भगवान् महावीर ने इसी दृष्टि से गृहस्थ साधकों के लिए अतिथि
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