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धर्म में दान को प्रथम स्थान क्यों ?
स्व. उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी
'धर्मस्य त्वरिता गतिः, चत्वारः पादाः' धर्म की गति तीव्र है, उसके चार चरण हैं।
नीतिकार तो इतनी-सी बात कहकर रह गए, अथवा ऊपर-ऊपर ही तैरते रह गए । मगर इसके तत्त्व की तह तक नहीं पहुँच सके। वास्तव में धर्म के चार चरण हैं-- दान, शील, तप और भाव, इनके सहारे से धर्म अभीष्ट लक्ष्य की ओर त्वरित गति कर सकता है।
यद्यपि धर्म के चारों चरण महत्त्वपूर्ण हैं, धर्मरथ को चलाने के लिए इन चारों की समय-समय पर जरूरत पड़ती है। किन्तु दान न हो तो शेष तीनों अंगों से काम नहीं चल सकता। दान के अभाव में शेष तीनों चरणों से नम्रता और उदारता सक्रिय रूप नहीं ले सकती। दान मानव-जीवन में स्वार्थ, लोभ, तृष्णा और लालसा का त्याग कराता है, मानव हृदय को वह करुणा, परोपकार और परसुख-वृद्धि में सहायता के लिए प्रेरित करता है । जैसे खेती करने से पहले किसान खेत की धरती पर उगे हुए कंटीले झाड़-झंखाड़ों, कांटों, कंकड़-पत्थरों फालतू घास आदि को उखाड़ कर उस धरती को साफ, समतल और नरम बना लेता है, तभी उसमें बोये हुए बीज अनाज की सुन्दर फसल दे सकते हैं। वैसे ही मानव की हृदय-भूमि पर उगे हुए तृष्णारूपी घास, लालसा, स्वार्थ और अहंता रूपी कांटों, कंटीले झाड़-झंखाड़ों एवं कंकर-पत्थरों को उखाड़ कर उसे नम्र एवं समरस बनाने के लिए दान की प्रक्रिया की जरूरत है, जिससे अन्य शील, तप आदि साधनाएँ भलीभांति हो सकें, धर्म भावों की फसल तैयार हो सके। निष्कर्ष यह है कि हृदयभूमि को नम्र व समरस बनाकर बोये हुए दानबीज से धर्म की उत्तम फसल तैयार होती है।
इस दृष्टि से देखा जाय तो धर्म के चार चरणों में सबसे महत्व
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