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सकारात्मक अहिंसा
पूर्ण और आवश्यक चरण दान है। वही शेष तीनों चरणों में तीव्र गति पैदा कर सकता है। धर्म के चार अंगों में दान प्रथम क्यों ?
मोक्षमार्ग के चार प्रकार बताये गये हैं जिन्हें हम धर्म के चार अंग कह सकते हैं, उनमें दान को प्राथमिकता दी गई है। प्रश्न यह होता है कि इन चारों में से शोल, तप या भाव को पहला स्थान न देकर दान को ही पहला स्थान क्यों दिया गया है ? इसके पीछे भी कुछ-न-कुछ रहस्य है, जिसे प्रत्येक मानव को समझना अनिवार्य है ।
.. दान को प्राथमिकता देने के पीछे रहस्य यह है कि शील, तप या भाव के आचरण का लाभ तो उसके आचरणकर्ता को ही मिलता है, अर्थात् जो व्यक्ति शील का पालन करेगा, उसे ही प्रत्यक्ष लाभ मिलेगा, इसी प्रकार तप और भाव का प्रत्यक्ष फल भी उसके कर्ता को ही मिलेगा, जबकि दान का फल लेने वाले और देने वाले दोनों को प्रत्यक्ष प्राप्त होता है । यद्यपि शील, तप और भाव का फल परोक्ष रूप से कुटुम्ब या समाज को भी मिलता है, किन्तु प्रत्यक्ष फल इन्हें नहीं मिलता । जबकि दान देने से लेने वाले की क्षुधा शान्त होती है, पिपासा बुझ जाती है, उसकी अन्य आवश्यकताओं या इच्छाओं की पूर्ति होती है, उसके दुःख का निवारण होकर सुख में प्रत्यक्ष वृद्धि होती है और देने वाले को भी आनन्द, सन्तोष, औदार्य, सम्मान एवं गौरव प्राप्त होता है। यदि दान लेने वाले को कोई लाभ न होता तो वह उसे लेता ही क्यों ? इसी प्रकार दान देने वाले को भी प्रत्यक्ष कोई लाभ न होता तो वह भी देता ही क्यों ? दान का लाभ दाता और संगृहीता दोनों को साक्षात् प्राप्त होता है। कभी-कभी दान का प्रत्यक्ष लाभ समाज को या अमुक पीड़ित, शोषित या अभावग्रस्त मानव को भी मिलता है। इसी कारण दान को धर्म के चार अंगों में या मोक्ष के चतुर्विध मार्ग में सर्वप्रथम स्थान दिया गया है।
दूसरी बात यह है कि शील का पालन या तप का आचरण कभीकभी प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता, आम जनता सहसा नहीं जान पाती कि अमुक व्यक्ति ने तप किया है या अमुक आभ्यन्तर तप करता है,
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