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________________ जैन-संस्कृति में सेवा-भाव [ 145 यह भव्य आदर्श है-नर-सेवा में नारायण-सेवा का, जन-सेवा में जिन (भगवान्) सेवा का। जैन संस्कृति के अंतिम प्रकाशमान सूर्य भगवान् महावीर हैं, उनका यह प्रवचन सेवा के महत्त्व के लिए सबसे बड़ा ज्वलन्त प्रमाण है। ... भगवान् महावीर दीक्षित होना चाहते हैं, किन्तु अपनी संपत्ति का गरीब प्रजा के हित के लिए दान करते हैं और एक वर्ष तक मुनि-दीक्षा लेने के विचार को लम्बा कर देते हैं । एक वर्ष में अरबों की सम्पत्ति जन-सेवा के लिए अर्पित करना अपना प्रथम कर्तव्य समझते हैं और मानव-जाति की आध्यात्मिक उन्नति करने से पहले उसकी भौतिक उन्नति में संलग्न रहते हैं 13 दीक्षा लेने के पश्चात् भी उनके हृदय में दया का असीम पारावार तरंगित रहता है, फलस्वरूप वे एक गरीब ब्राह्मण के दुःख से दयार्द्र हो उठते हैं और उसको अपना एक-मात्र वस्त्र भी दे देते हैं ।14 जैन सम्राट् चन्द्रगुप्त भी सेवा के क्षेत्र में पीछे नहीं रहे हैं। उनके प्रजाहित के कार्य सर्वतः सुप्रसिद्ध हैं । सम्राट् सम्प्रति की सेवा भी कुछ कम नहीं है। जैन-इतिहास का साधारण-से-साधारण विद्यार्थी भी जान सकता है कि सम्राट् के हृदय में जन-सेवा की भावना किस प्रकार कूट-कूट कर भरी हुई थी और किस प्रकार उन्होंने उसे कार्यरूप में परिणत कर जैन संस्कृति के गौरव को अक्षुण्ण बनाए रखा। महाराजा कलिंग-चक्रवर्ती खारवेल और गुर्जरनरेश कुमारपाल भी सेवा के क्षेत्र में जैन-संस्कृति की मर्यादा को बराबर सुरक्षित रखते हैं। मध्य-काल में जगडूशाह, पेथड़ और भामाशाह जैसे-कुबेर भी जनसमाज के कल्याण के लिए अपने सर्वस्व की आहुति दे डालते हैं। जैन-समाज ने जन-समाज की सेवा की है। इसके लिए सुदूर इतिहास को अलग रहने दीजिए और केवल गुजरात, मारवाड़, मेवाड़ या कर्नाटक आदि प्रान्तों का एक बार भ्रमण कर जाइए, इधर-उधर खण्डहरों के रूप में पड़े हुए ईंट-पत्थरों पर नजर डालिए, पहाड़ों की चट्टानों पर के शिलालेख पढ़िये, जहाँ-तहाँ देहात में फैले हुए जन-प्रवाद सुनिए-आपको मालूम हो जाएगा कि जैन-संस्कृति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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