________________
144 1
सकारात्मक हिंसा
महत्त्व दिया है । संवाद का विस्तृत एवं स्पष्ट रूपक इस प्रकार है
"श्री इन्द्रभूति गौतम ने जो भगवान् महावीर के सबसे बड़े गणधर थे, भगवान् से पूछा - "भगवन् ! एक भक्त दिन-रात आपकी सेवा करता है, आपकी पूजा-अर्चना करता है । फलतः उसे दूसरे दुःखियों की सेवा के लिए अवकाश नहीं मिल पाता । दूसरा सज्जन दीन दुःखियों की सेवा करता रहता है, सहायता करता है, जन-सेवा में स्वयं को घुला मिला देता है, जन-जीवन पर दया का वर्षण करता है । फलतः उसे आपकी सेवा के लिए अवकाश नहीं मिल पाता । भन्ते ! दोनों में से आपकी ओर से धन्यवाद का पात्र कौन है और दोनों में से श्रेष्ठ कौन है ?"
भगवान् महावीर ने बड़े रहस्य भरे स्वर में उत्तर दिया- " गौतम ! जो दीन दुःखियों की सेवा करता है, वह श्रेष्ठ है, वही मेरे धन्यवाद का पात्र है और वही मेरा सच्चा पुजारी है । " 12 गौतम विचार में पड़ गए कि यह क्या ? भगवान् की सेवा के सामने अपने ही दुष्कर्मों से दुःखित पापात्माओं की सेवा का क्या महत्त्व ? धन्यवाद तो भगवान् के सेवक को मिलना चाहिए । गौतम ने जिज्ञासा भरे स्वर से पूछा“भन्ते ! बात कुछ गले नहीं उतरी । दुःखियों की सेवा की अपेक्षा तो आपकी सेवा का महत्त्व अधिक होना चाहिए। कहाँ तीन लोक के नाथ --- पवित्रात्मा श्राप और कहाँ संसार के वे पामर प्राणी अपने ही कृत - कर्मों का फल भोग रहे हैं ।"
1
भगवान् ने उत्तर दिया – “गौतम ! मेरी सेवा, मेरी आज्ञा के पालन करने में ही तो है । उसके अतिरिक्त अपनी व्यक्तिगत सेवा के लिए तो मेरे पास कोई स्थान ही नहीं है । मेरी सबसे बड़ी प्रज्ञा यही है कि पीड़ित जन-समाज की सेवा की जाए, उसे सुख शान्ति पहुँचाई जाए। प्राणी मात्र पर दया भाव रखा जाए। अतः दुःखियों की सेवा करने वाला मेरी आज्ञा का पालक है । गौतम ! इसलिए मैं कहता हूं कि दुःखियों की सेवा करने वाला ही धन्य है- श्रेष्ठ है, मेरी निजी सेवा करने वाला नहीं । मेरा निजी सेवक सिद्धान्त की अपेक्षा व्यक्तिगत मोह में अधिक उलझा हुआ है ।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org