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________________ जैन-संस्कृति में सेवा-भाव [ 143 गांव में कोई साधु बीमार पड़ा हो और दूसरा साधु जानता हुआ भी गाँव से बाहर ही बाहर एक गाँव से दूसरे गाँव चला जाए, रोगी की सेवा के लिए गाँव में न आए, तो वह भी महान् पाप है उग्रदंड का अधिकारी है। भगवान् महावीर का कहना है- 'सेवा स्वयं एक बड़ा भारी तप है।' अतः जब भी कभी सेवा करने का पवित्र अवसर मिले, तो उसे छोड़ना नहीं चाहिए । सच्चा जैन वह है, जो सेवा करने के लिए सदा प्राों की, दीन-दुःखियों की, पतितों एवं दलितों की खोज में रहता है। __ स्थानांग-सूत्र में भगवान् महावीर की आठ महाशिक्षाएँ बड़ी ही प्रसिद्ध हैं। उनमें पाँचवीं शिक्षा यह है-'असंगिहीय परिजणस्स सगिण्हयाए अब्भुढे यव्वं भावह' अर्थात्, जो अनाश्रित है, निराधार है, कहीं भी जीवन-यापन के लिए उचित स्थान नहीं पा रहा है, उसे तुम आश्रय दो, सहारा दो उसकी जीवन-यात्रा के लिए यथोचित प्रबन्ध करो।' जैन-गृहस्थ का द्वार प्रत्येक असहाय के लिए खुला हुमा रहता है। वहाँ किसी जाति, कुल, देश या धर्म के भेद के बिना मानव-मात्र के लिए समान आदर-भाव है, प्राश्रयस्थान है। एक बात और भी बड़े महत्त्व की है । भगवान् महावीर ने सेवा का स्थान बहुत ही ऊँचा कर दिया है। जैन-धर्म में सबसे बड़ा और ऊँचा पद तीर्थकर का माना गया है। तीर्थकर होने का अर्थ यह है कि वह साधक समाज का पूजनीय महापुरुष, देवाधिदेव बन जाता है। भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान महावीर दोनों तीर्थकर हैं। भगवान् ने अपने जीवन के अंतिम प्रवचन में सेवा का महत्त्व बताते हुए कहा है कि- 'वेयावच्चेणं तित्थयरनाम-गोत्तं कम्मं निबन्धइ।' अर्थात्"वैय्यावृत्य करने से, सेवा करने से, तीर्थकर पद की प्राप्ति होती है।' साधारण जन-समाज में सेवा का आकर्षण पैदा करने के सिए भगवान् महावीर का यह उदात्त प्रवचन कितना महनीय है ? प्राचार्य कमल-संयम ने भगवान् महावीर और गौतम का एक बहुत सुन्दर संवाद हमारे सामने प्रस्तुत किया है । संवाद में भगवान् महावीर ने दुःखितों की सेवा को अपनी सेवा की अपेक्षा भी अधिक For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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