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सकारात्मक प्रहिंसा
अपने धन का जन-समाज की सेवा के लिए कब त्याग करूँगा ? वह दिन धन्य होगा, जब मेरे संग्रह का उपयोग जन-हित के लिए होगा, दीन-दुःखियों के लिए होगा।" भगवान् महावीर का यह आघोष हमारी निद्रा भंग करने के लिए पर्याप्त है कि- 'असंविभागी न हु तस्स मुक्खो। अर्थात् - 'मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने संग्रह के उपभोग का अधिकारी अपने आप को ही न समझे, प्रत्युत अपने आसपास के साथियों को भी अपने बराबर का अधिकारी माने । जो मनुष्य अपने साधनों का स्वयं ही उपयोग करता है, उसमें से दूसरों की सेवा के लिए वह कुछ भी अर्पण नहीं करता है तो, वह अपने बन्धनों को तोड़कर कभी भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता।'
जैन-धर्म में माने गए मूल आठ कर्मो में मोहनीय-कर्म का स्थान बड़ा ही भयंकर है । आत्मा का जितना अधिक पतन मोहनीय-कर्म के द्वारा होता है, उतना और किसी भी कर्म से नहीं । मोहनीय-कर्म के सबसे अन्तिम उग्ररूप को महा मोहनीय कहते हैं। उसके तीस भेदों में से पच्चीसवाँ भेद यह है कि-'यदि आपका साथी बीमार है या किसी घोर संकट में पड़ा हुआ है, और आप उसकी सहायता या सेवा करने में समर्थ है, फिर भी यदि आप सेवा न करें और यह विचार करें कि इसने कभी मेरा काम तो किया नहीं, मैं ही इसका काम क्यों करूँ ? कष्ट पाता है, तो पाए अपनी बला से, मुझे क्या लेना देना ? भगवान् महावीर ने अपने चम्पापुरी के धर्म-प्रवचन में स्पष्टरूपेण इस सम्बन्ध में कहा है कि-'जो मनुष्य इस प्रकार अपने कर्तव्य के प्रति उदासीन होता है, वह धर्मं से सर्वथा पतित होता है। उक्त पाप के कारण वह सत्तर कोटा-कोटि सागर तक चिरकाल जन्म-मरण के चक्र में उलझा रहता है, सत्य के प्रति अभिमुख नहीं होता।'
गृहस्थ ही नहीं, साधु वर्ग को भी सेवा-धर्म का बड़ी कठोरता से पालन करना होता है । भगवान् महावीर ने कहा है-'यदि कोई साधु अपने बीमार या संकटापन्न साथी को छोड़कर तपश्चरण करने जाता है, शास्त्र-चिंतन में संलग्न हो जाता है, तो वह अपराधी है, संघ में रहने योग्य नहीं है। उसे एक-सौ बीस उपवासों का प्रायश्चित लेना पड़ेगा, अन्यथा उसकी शुद्धि नहीं हो सकती।' इतना ही नहीं, एक
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