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जैन-संस्कृति में सेवा-भाव
0 स्व. उपाध्याय श्री अमरमुनि
जैन-संस्कृति की आधार-शिला प्रधानतया निवृत्ति है । अतः उसमें त्याग, वैराग्य, तप और तितिक्षा आदि पर जितना अधिक बल दिया गया है, उतना और किसी नियम-विशेष पर नहीं। परन्तु जैन-धर्म की निवृत्ति, साधक को जन-सेवा की ओर अधिक से अधिक आकर्षित करने के लिए है। जैन-धर्म का आदर्श ही यह है कि प्रत्येक प्राणी एकदूसरे की सेवा करे, सहायता करे और जैसी भी अपनी योग्यता तथा शक्ति हो उसी के अनुसार दूसरों के काम आए । जैन-धर्म में जीवात्मा का लक्षण ही सामाजिक माना गया है, वैयक्तिक नहीं। प्रत्येक सांसारिक प्राणी अपने सीमित व्यक्ति-रूप में अपूर्ण है, उसकी पूर्णता आस-पास के समाज में और संघ में निहित है। यही कारण है कि जैन-संस्कृति का जितना अधिक झुकाव आध्यात्मिक साधना के प्रति है, उतना ही ग्राम, नगर और राष्ट्र के प्रति भी है। ग्राम, नगर और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों को जैन-साहित्य में धर्म का रूप दिया गया है । भगवान् महावीर ने अपने धर्म-प्रवचनों में ग्राम-धर्म, नगरधर्म और राष्ट्र-धर्म को बहुत ऊँचा स्थान दिया है। उन्होंने आध्यात्मिक साधना-प्रधान जैन-धर्म की साधना का स्थान ग्राम-धर्म, नगर-धर्म और राष्ट्र-धर्म के बाद ही रखा है, पहले नहीं । एक सभ्य नागरिक एवं राष्ट्र-भक्त ही सच्चा जैन हो सकता है, दूसरा नहीं। उक्त विवेचन के विद्यमान रहते, यह कैसे कहा जा सकता है कि-"जैन-धर्म एकांत निवृत्ति प्रधान है अथवा उसका एकमात्र उद्देश्य परलोक ही है, इहलोक नहीं।" जैन-धर्म उधार-धर्म नहीं है, अपितु नकद धर्म है । वह इस लोक और परलोक दोनों को ही शानदार बनाने की सत्प्रेरणा प्रदान करता है।
जैन-गृहस्थ जब प्रातः उठता है, तो वह तीन चीजों का चिन्तन करता है। उनमें सबसे पहला संकल्प यही है कि "मैं
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