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सकारात्मक प्रहिंसा
साक्षियों की कोई सीमा नहीं है । सबसे महान् एवं प्रामाणिक साक्षी तो क्षुधा के सम्बन्ध में मनुष्य की अपनी अनुभूति ही है। अतः आवश्यक है कि हम वर्तमान में बाढ़ तथा सूखा-ग्रस्त अपने बन्धुओं की वेदना को समझें और उसके निवारण के लिए अपनी पूरी निष्ठा के साथ अपनी जन-धन की शक्ति का सदुपयोग करें, ताकि भविष्य का इतिहासकार यह न रेखांकित कर सके कि परमोत्कृष्ट उदात्त भारतीय-संस्कृति के उत्तराधिकारी भारतवासी जन अपने क्षुद्र स्वार्थों में ही लिप्त रहे, अपने संकट-प्रस्त. बन्धुजनों के हितार्थ कुछ भी नहीं कर सके । सावधान ! समय पर कर्त्तव्यहीनता एक महान् पाप है, एक भयंकर मृत्यु है । प्राचीनकाल से यशस्वी जनों का यों ही प्रमादवश तथा स्वार्थान्धता के कारण अयशस्वो हो जाना, मृत्यु से भी बढ़ कर है । श्रीकृष्ण ठीक ही कहते हैं
"संभावितस्य चाकीर्तिमरणादतिरिच्यते ।" (भगवद्गीता 2.34) ___ अधिक विस्तार में कहाँ तक जाऊँ ? प्रसंगोचित, जो कहना था, वह काफी कह दिया गया है। बुद्धिमान पाठकों को मालूम होना चाहिए मैं वृद्धावस्था में हूं और साथ ही अस्वस्थता की स्थिति में भी। अतः यह प्रस्तुत लेख काष्ठ शय्या (तखत) पर लेटे हुए लिखा रहा हूं। इस पर से समझा जा सकता है कि मेरे हृदय को पोड़ा किस सीमा तक है । अतः अन्त में मेरा यही विनम्र भाव से कहना है कि यह दुःखद समय आपकी मानवता की परीक्षा का समय है। आपके धर्म और दर्शनों की यथार्थता के प्रति एक स्पष्ट चुनौती है। मनुष्य का साम्प्रदायिक रूप से कोई भी धर्म हो सकता है, किन्तु मूल धर्म मानवता है और वह है उदात्त एवं उदार जन-कल्याण रूप भावना की ज्योति में प्रकाशमान सेवा-धर्म । प्राकृत वाङ्मय की इस समुज्ज्वल सूक्ति को बराबर स्मृति में रखिए
'सेवापहाणो हि मणुस्सधम्मो" -मनुष्य का धर्म सेवा प्रधान है। 0
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