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सेवाप्रधान मनुष्य धर्म
। 139 सुमेरु से नीचे उतर कर खुली धरती पर आ गए थे। फिर भी उनके इस पुण्य-प्रयोग से अन्तर्मन से प्रानन्द की कोई सीमा न थी। __भारतीय इतिहास में राजा रंतिदेव देवात्मा पुरुष हैं। दुर्भिक्ष के समय क्षुधा से पीड़ित उन्हें अनेक सप्ताहों के अनन्तर कुछ भोजन मिलता है और वे उस भोजन को दया भाव से चाण्डाल जैसे अन्य बुभुक्षितों को सहर्ष अर्पण कर देते हैं। उस समय का उनका यह अमृत स्वरूप अन्न-दान आज भी जीवन्त है। उन्होंने तब सहर्ष कहा
"न त्वहं कामये राज्यं, न स्वर्ग, न पुनर्भवम् ।
कामये दुःखतप्तानां, प्राणिनामातिनाशनम् ॥ भावार्थ है- न मुझे राज्य चाहिए, न स्वर्ग, न मोक्ष । मैं एकमात्र प्राणियों की पीड़ा को दूर करने की ही कामना करता हूं।
धर्म पुत्र युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ है। उसमें अर्ध स्वर्ण कान्ति वाला शरीर लिए एक नकुल पाता है। वह शरीर की इस स्वर्ण कान्ति का रहस्य निर्दिष्ट करता है-"कई दिनों से भूखे एक ब्राह्मण परिवार को कुछ भोजन मिलता है और वह समग्र परिवार करुणा से द्रवित होकर अन्य क्षुधाक्रान्त लोगों को वह अपना समन भोजन सहर्ष अर्पित कर देता है । उस पुण्य गृह में भ्रमण करने से ही मेरा अर्ध शरीर स्वर्ण कान्ति से युक्त हुआ है।" संक्षेपतः उल्लिखित उक्त कथा का सार यही है कि अभावग्रस्तों की प्राणपण से सेवा करना ही महान् पुण्य है और महान् धर्म है। ___ साधना के पथ पर निरन्तर अग्रसर रहने वाले सन्तों ने कहा है कि भूख से अधिक भयंकर दूसरी पीड़ा कोई नहीं है। जैनाचार्यों की वाणी है -“खुहासमा वेयणा नत्थि।"
सन्त कबीर ने भी क्षुधा को भजन में भंग डालने वाली कुतिया बताया
"कबीरा खुदाह कूकरी, करत भजन में भंग"
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