________________
138 1
सकारात्मक हिंसा
है ।" यह सन्त-वाणी शत-प्रतिशत सत्य पर आधारित है । दया, मानवता का अन्तःप्राण है । उसकी यह दिव्य ध्वनि है कि मानव ! तुम्हें जो कुछ प्राप्त है, उसका इधर-उधर अपेक्षित दिशा में प्रथम उपयोग करके तदनन्तर स्वयं उपभोग करो । यजुर्वेद का मन्त्र है"तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा: " अर्थात् त्याग पूर्वक उपभोग करना चाहिए । तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर ने कहा था- "प्रसंविभागी बहु तस्स मोक्खो" अर्थात् जो अपने आस-पास के साथियों में अपने प्राप्त साधनों का संविभाग अर्थात् उचित वितरण नहीं करता है, वह भव-बन्धन से कदापि मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता । भगवान् महावीर ने तो इससे आगे बढ़कर यहाँ तक कहा है- मेरी उपासना से बढ़कर भी सर्वाधिक मंगलमय उपासना अर्थात् धर्म-साधना जनसेवा है । वही व्यक्ति धन्य है, जो पीड़ितों की सेवा करता है
" जे गिलाणं पडियरइ से धन्ने ।"
कर्म-योगी भगवान् कृष्ण का गीता में उद्घोष है, कि जो दूसरे जरूरतमन्दों को न खिलाकर स्वयं ही सब कुछ खा जाते हैं, वे पापी भोजन नहीं खाते, अपितु पाप ही खाते हैं
"भुञ्जते ते त्वघं पापा: "
प्रस्तुत प्रसंग में भारतीय इतिहास के अनेक महत्त्वपूर्ण स्वर्णिम उदाहरण हैं, जो स्वार्थ का परित्याग कर परमार्थ रूप पदार्थ का अर्थात् परोपकार का समुद्घोष करते हैं ।
भगवान् महावीर के महान् शिष्य गणधर इन्द्रभूति गौतम तापस परम्परा के लगभग 1500 भूखे साधकों को अपने योगबल से भोजन कराते हैं, जबकि शास्त्र में साधक के द्वारा चमत्कारों का प्रयोग एवं प्रदर्शन करना निषिद्ध है । इसका अर्थ है - अन्ततः करुणा ही सर्वोपरि धर्म है ।
प्राचीन गुर्जर प्रदेश के जावड़ शाह और पेथड शाह जैसे श्रीमंत जैन श्रावकों ने अपने धन तथा अन्न के विशाल भंडार मुक्तभाव से दुर्भिक्ष पीड़ित जनता के हितार्थ अर्पित कर दिए थे और ऐश्वर्य के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org