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________________ सेवाप्रधान मनुष्य धर्म । स्व. उपाध्याय श्री अमरमुनि मानव, प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिए अनादि-काल से संघर्ष करता आ रहा है। इस विजय यात्रा में उसे कुछ सफलताएं भी प्राप्त हुई हैं और इससे उसके अन्तर्मन में, मिथ्या अहंकार का स्वर भी अनुगुजित होने लगा है। किन्तु, यथार्थ दृष्टि से देखा जाए, तो प्रकृति के रहस्यों को सही रूप से समझने में वह अब भी अक्षम है एवं पंगु स्थिति में है। विजय की बात तो अभी बहुत दूर है। - मनुष्य ने अपने बौद्धिक बल से पाताल में समुद्रों की अतल नाप से कही जाने वाली गहराइयों को भी नाप लिया है और, ऊपर आकाश में देवलोक के रूप में विख्यात चन्द्रलोक पर भी विचरण करने लगा है। पौराणिक आख्यानों को इस तरह काफी उलट-पलट दिया है उसने । यह सब कुछ हुआ है और आगे भी हो रहा है, फिर भी जब प्रकृति के क्रूर प्रहार मानव पर सहसा आ पड़ते हैं, तो वह रह जाता है, हक्का-बक्का बेसहारा और लाचार, हीन और दीन । वर्तमान वर्ष (सन् 1987 ई.) के वर्षाकाल में मनुष्य की जो बदतर हालत हुई है, वह हुई है प्रकृति के रहस्यमय प्रहारों से । राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र, मद्रास, कर्नाटक, मध्य प्रदेश आदि अनेक जन-पदों में इतना सूखा पड़ा है, कि पानी की कुछ बूदें तक वर्षा के रूप में उपलब्ध नहीं हुई हैं । गाँवों के जलाधार कूप और तालाब भी सूख गए हैं। यहाँ तक कि कल-कल नाद करती बहने वाली कितनी ही नदियाँ भी शुष्क बालुका मात्र शेष रह गईं हैं। यहाँ तक कि मनुष्य को पीने के लिए पानी उपलब्ध नहीं है, और न मूक पशुओं के लिए कहीं घास-चारा है और न पानी। सब ओर त्राहित्राहि मची हुई है । इस भयंकर दुःखद स्थिति से मुक्ति पाने के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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