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दानं भोगो नाशस्तिस्रो, गतयो भवन्ति वित्तस्य । यो न ददाति न भुङ्क्ते, तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥
सकारात्मक हिंसा
अर्थात् - धन की दान, भोग और नाश ये तीन गतियाँ हैं । जो धन न दान में दिया जाता है, न भोग में लगाया जाता है, उसकी तीसरी गति अवश्यम्भावी है अर्थात् वह नष्ट हो जाता है ।
दान और भोग में न आया हुआ धन जब नष्ट ही हो जाता है तब दान द्वारा उसका सदुपयोग ही करना उत्तम है। क्योंकि ऐसा न करने पर धन तो नष्ट हो ही जावेगा, तब पश्चात्ताप के सिवाय और क्या बचेगा ? इस बात को दृष्टि में रखकर ही, श्रावक के लिए उदारता रखने का उपदेश दिया जाता है । जो श्रावक इस उपदेश को कार्यान्वित करता है, वह अपनी आत्मा का भी कल्याण करता है और धर्म का महत्त्व भी फैलाता है । लोग समझने लगते हैं कि धर्मानुयायी श्रावक धन के दास नहीं होते, किन्तु धन के स्वामी होते हैं और वे धन का सदुपयोग करते हैं, उनमें कृपणता नहीं होती, किन्तु उदारता होती है ।
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