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दान में उदारता
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धर्म में दान सबसे पहला अंग है। सूत्रों में भी जहां किसी ऋद्धि, सम्पदा आदि की प्राप्ति के कारण का प्रश्न किया गया है, वहां यह प्रश्न भी किया गया है कि इस व्यक्ति ने पूर्व जन्म में क्या दिया था ? व्यवहार में भी वही व्यक्ति प्रतिष्ठित माना जाता है, जो उदार है । कृपण व्यक्ति प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर सकता, फिर चाहे वह कैसा भी क्यों न हो । उदार व्यक्ति की कीर्ति, उस व्यक्ति के रहने पर भी अमिट रहती है । लोग प्रातःकाल उन लोगों का स्मरण विशेष रूप से करते हैं जो दान के द्वारा अपनी कीर्ति फैला गये हैं ।
कहा जाता है कि राजा भोज ने एक मक्खी को पैर घिसते देखकर एक कवि से प्रश्न किया कि यह मक्खी क्या कहती है ? भोज के इस प्रश्न के उत्तर में कवि ने कहा
देयं भोज ! धनं धनं सुकृतिभिर्नो संचयस्तस्य वै, श्रीकर्णस्य बलेश्च विक्रमपतेरद्यापि कीर्तिः स्थिता । अस्माकं मधु दानभोगरहितं नष्टं चिरात् संचितं । निर्वाणादिति नैजपादयुगलं, घर्षन्ति यन् मक्षिकाः ॥ ( चाणक्यनीति, अध्याय 11 वां )
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इस श्लोक का भावार्थ यह है कि "हे राजा भोज ! तुम्हारे पास जो धन है वह सुकृत में लगा दो, संचय करके न रखो। कर्ण, बलि और विक्रम की विमल कीर्ति इस भूतल पर अब तक भी इसी कारण फैली हुई है कि उन्होंने अपने पास का धन सुकृत में लगाया था । मैंने ( शहद की मक्खी ने ) अपना मधु द्रव्य न तो किसी को दिया, न स्वयं ही खाया । परिणाम यह हुआ कि वह मेरा चिर संचित द्रव्य नष्ट हो गया, यानि लोग लूटकर ले गये । मैं अपनी इस कृपणता के लिए पैर घिसकर पश्चात्ताप करती हूं । जो लोग मेरी तरह कृपण रहेंगे, उन्हें भी इसी प्रकार पश्चत्ताप करना पड़ेगा। क्योंकि कृपण का धन दान या भोग में नहीं लगता, किन्तु व्यर्थ नष्ट हो जाता है ।
धन किसी-न-किसी मार्ग से जाता जरूर है । वह एक जगह स्थिर नहीं रहता । फिर दान देकर उसका सदुपयोग क्यों न कर लिया जाय ? भर्तहरि ने कहा है
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