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________________ 132 ] सकारात्मक अहिंसा वे इस तत्त्व को न जानते रहे हों, यह सम्भव नहीं। क्योंकि उक्त वर्णन में आगे चलकर तुंगिया नगरी के श्रावकोंके लिए कहा गया है कि वे आस्रव, संवर, निर्जरा अधिकरण, बन्ध और मोक्ष, इन तत्त्वों में कुशल थे। ऐसा होते हुए भी, वे दूसरे लोगों का पालन करने के समय प्रारम्भ, समारम्भ की आड़ नहीं लेते थे। क्योंकि उनमें उदास्ता श्री, दया थी। आज के लोग शास्त्र में वर्णित बातों को पूरी तरह समझने के बदले, उनका दुरुपयोग कर डालते हैं। श्रावक कभी अनुदार या कृपण नहीं होता । वह अपनी वस्तु का लाभ दूसरे लोगों को भी देता है। ज्ञातासूत्र के आठवें अध्ययन में प्ररणक श्राक्क का वर्णन है । उस वर्णन में कहा गया है कि जब प्ररणक श्रावक व्यापार के लिए विदेश जाने को तैयार हुआ, तब उसने अपने कुटुम्बियों एवं सजातियों को आमन्त्रित करके प्रीति-भोज कराया और फिर उनसे स्वीकृति लेकर विदा हुआ। वह अपने साथ बहुत-से उन लोगों को भी ले गया था, जो व्यापार करने की इच्छा रखते थे। समुद्र में एक देव ने अरणक को धर्म से विचलित करने के लिए उपसर्ग दिए, लेकिन अरणक अविचलित ही रहा। तब वह देव अरणक को दो जोड़े दिव्य कुण्डल के देकर चला गया। अरणक ने उन दिव्य कुण्डलों पर भी ममत्व नहीं किया, अपितु उन्हें दूसरे को भेंट कर दिया। राजप्रश्नीय सूत्र के अनुसार राजा प्रदेशी ने श्रावक होते ही यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं राज्य की आय के चार भाग करूंगा। जिनमें से एक भाग दानशाला में व्यय करूगा, जिससे श्रमण, माहण आदि पथिकों को शान्ति मिला करे। इस तरह के वर्णनों से स्पष्ट है कि श्रावक कृपण नहीं होता है, किन्तु उदार होता है। वह दूसरे की भलाई से सम्बन्धित कामों के प्रसंग पर प्रारम्भ समारम्भ या दूसरी कोई आड़ लेकर बचने का प्रयत्न नहीं करता है, बल्कि वह जनहित का भी वैसा ही ध्यान रखता है, जैसा ध्यान अपना या कुटुम्ब के लोगों के हित का रखता है । यही नहीं, कभी-कभी वह दूसरे की भलाई के लिए अपने आपको भी कष्ट में डाल देता है। ऐसे ही श्रावक धर्म की प्रशंसा भी कराते हैं तथा राजा प्रजा में आदर भी पाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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