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________________ दान में उदारता [ 131 श्रावक होने से पहिले वह व्यक्ति जिन भोग्योपभोग्य पदार्थों में आसक्त रहता था, ममत्वपूर्वक जिनका संग्रह करता था और जिनके लिए क्लेश, संताप एवं महान् अनर्थ करने के लिए उतारू हो जाता था, वही व्यक्ति श्रावक होने के पश्चात् उन्हीं पदार्थों को अंधिकरण रूप (कर्म बन्ध का कारण) मानता है और उनसे ममत्व घटाता है तथा सचित्त सामग्री से दूसरे को सुख-सुविधा पहुंचाता है । इस प्रकार श्रावकत्व स्वीकार करने के पश्चात् मनुष्य की भावना भी बदल जाती है और कार्य भी बदल जाते हैं। उसकी भावना उदार हो जाती है। - आज के बहुत से श्रावक दूसरे का हित करने और दूसरे का दुःख मिटाने के समय प्रारम्भ, समारम्भ की दुहाई देने लगते हैं और आरम्भ, समारम्भ से बचने के नाम पर कृपणता एवं अनुदारता का व्यवहार करते हैं। लेकिन ऐसा करना बड़ी भूल है । अपने भोगविलास एवं सुख-सुविधा के समय तो प्रारम्भ, समारम्भ की उपेक्षा करना और दीनों का दुःख मिटाने के समय प्रारम्भ, समारम्भ की आड़ लेना कैसे उचित हो सकता है ? श्री भगवती सूत्र के दूसरे शतक के पांचवें उद्देशक में तुगिया नगरी के श्रावकों की ऋद्धि का इस प्रकार वर्णन है अड्डा, दित्ता, विच्छिण्णविपुलभवणसयणासणजाणवाहणाइण्णा, बहुधणबहुजायरूवरयया आओगपयोगसम्पउत्ता, विच्छड्डियविपुलभत्तपाणा, बहुदासीदासगोमहिसगवेलगपभूधा, बहुजणस्स अपरिभूया अभिगयजीवाजीवा जाव उसियफलिहा अभंगदुवारा। इस पाठ से स्पष्ट है कि तुंगिया नगरी के श्रावकों के यहां बहुत से दासी-दास एवं पशुओं का पालन होता था, बहुत-सा भात, पानी निपजता था और उनकी सहायता से बहुत से लोगों की आजीविका चलती थी। इस कारण उनके यहां अधिक प्रारम्भ, समारम्भ का होना स्वाभाविक ही है। श्रावक होकर भी उनके यहां अधिक समारम्भ होता था। तो क्या वे प्रारम्भ समारम्भ को नहीं समझते थे ? क्या प्रारम्भ-समारम्भ को घटाने विषयक तत्त्व को वे नहीं मानते थे?. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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