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दान में उदारता
प्राचार्य श्री जवाहरलाल जी म.
.. , जैन-शास्त्रों में धर्म के चार अंग प्रधान कहे गये हैं। जिनमें से दान-धर्म, धर्म की पहली सीढ़ी है। दान के भेदों में भी अभय-दान और सुपात्र-दान को ही श्रेष्ठ कहा गया है। सुपात्र दान वह है, जिसका द्रव्य भी शुद्ध हो, दाता भी शुद्ध हो और पात्र भी शुद्ध हो । इन तीनों का संयोग मिलने पर महान् लाभ होता है।
द्रव्य शुद्ध हो, इस कथन का मतलब वस्तु की श्रेष्ठता नहीं है, किन्तु इसका तात्पर्य है कि जो द्रव्य अधःकर्मादि 16 दोषों से रहित है तथा जो मुनि महात्माओं के तप, संयम का सहायक एवं वर्द्धक है, वह द्रव्य शुद्ध होता है। दाता वह शुद्ध है, जो बिना किसी प्रति-फल की इच्छा अथवा स्वार्थ-भावना के दान देता है तथा जिसके हृदय में पात्र के प्रति श्रद्धा भक्ति है । पात्र वह शुद्ध है, जो गृह-प्रपंच को त्याग कर संयमपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा हो और जो संयम का पालन करने के लिए ही दान ले रहा हो । इन तीनों बातों का एकीकरण होने पर ही श्रावक इस बारहवें व्रत का लाभ पाता है। बारहवें व्रत के पाठानुसार तो व्रत की व्याख्या यहां ही पूर्ण हो जाती है, परन्तु इस व्रत का उद्देश्य केवल मुनि महात्माओं को ही दान देना नहीं है, किन्तु श्रावक के जीवन को उदार एवं विशाल बनाना भी इस व्रत का उद्देश्य है । जीवन-निर्वाह के लिए जो अत्यन्त आवश्यक है उस भोजन में से भी जब श्रावक दूसरे के लिए विभाग करता है तब दूसरी ऐसी कौन-सी वस्तु हो सकती है, जिसमें श्रावक दूसरे का विभाग न करे। दूसरे लोग जिसके अभाव में दुःख पावें और श्रावक उसको अनावश्यक ही भण्डारों के ताले में बन्द कर रखे यह उचित नहीं है। श्रावक अपने पास के समस्त पदार्थों में से दूसरे को भाग देकर पदार्थ पर से अपना ममत्व भी उतार सकता है तथा दूसरे की भलाई भी कर सकता है।
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