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________________ दान का महत्त्व [ 129 दान के भेदों को समझकर विवेकपूर्वक अपनी शक्ति का, अपने द्रव्य का सदुपयोग करेंगे, अनावश्यक परिग्रह से अपनी ममता हटाएंगे तो इस लोक में भी आप हलके होंगे, परलोक में भी आप सुखी होंगे और दोनों लोकों में कल्याण के अधिकारी बनेंगे। तीर्थंकरों द्वारा वर्षावान यह न सोचें कि जीवन में केवल संयम और तप ही श्रेयस्कर हैं, तथा दान की कोई आवश्यकता नहीं है। यह सोचना गलत है। वस्तुतः गृहस्थ जीवन से दान का बड़ा घनिष्ठ संबंध रहता है। वस्तुतः गृहस्थ के लिए दान का बड़ा भारी महत्त्व है। आपको मालम है परदेशी राजा ने बेले-बेले का तप करते हुए भी दानशाला खोल दी थी। जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित मार्ग में दान का तिरस्कार नहीं अपितु बहुमान किया गया है। प्रत्येक तीर्थंकर दीक्षा लेने के पहले महान् वर्षीदान दिया करते हैं। तीर्थंकरों के लिए दान को क्यों भनिवार्य समझा गया है ? इसलिये कि समाज के लोगों को उन्हें यह परमावश्यक मार्ग बताना अभीष्ट होता है । सभी तीर्थंकरों द्वारा प्रदर्शित इस दान मार्ग पर जो भी गृहस्थ विवेकपूर्वक अपने जीवन को लगायेंगे, उनका इस लोक एवं परलोक में कल्याण होगा और वे अक्षय शान्ति एवं परमानन्द के अधिकारी बनेंगे। । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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